प्रतिशोध और धैर्य
प्रतिशोध और धैर्य
अगर आज हूं मैं खड़ी
साँस ले रही हूँ इस घड़ी
जीवन से जुड़ी है गर मेरी कड़ी
इसके पीछे है एक शक्ति बड़ी
जिसके सहारे में सबसे लड़ी
मौन मैं रही फिर भी जीत गई !
चुनौतियाँ थी बड़ी, मौत सामने खड़ी
फिर भी मेरा वो कुछ ना कर सकी
क्योंकि मेरे साथ थी मेरी एक सखी
'धैर्य' जिसे हूं मैं नाम दे रही....
अच्छा समझ बुरे इंसान से जुड़ी
नादानी मे मैं सब कुछ बता रही
जो बन सकती थी एक समस्या बड़ी
व्यंग्य का पात्र थी मैं बनती जा रही,
मेरे हर वाक्य पर कर रहे थे हंसी
दोस्त समझ मैं माफ करती रही
लेकिन एक दिन हदें पार होने लगीं
उनकी असलियत सामने आने लगीं।
मन कर रहा था बहुत कुछ कह दूं
उन्हे आसमां से जमी पर पटक दूं !
उनके सामने एक आईना रख दूं
उनकी सच्चाई उन्हे दिखा दूं !
अपने ऊपर हुए व्यंग्य का प्रतिशोध लूं
मैं हूं नहीं अबला ये प्रकट मैं करूं !
उलझे हैं किससे उन्हे बता दूं !
भावनाएँ मुझ पर हावी हो रही थी
क्रोध की अग्नि बेकाबू हो रही थी
उनके व्यवहार ने दी थी पीड़ा बड़ी
अंदर ही अंदर थी में थी तड़प रही
सोच रही थी कि मैं क्यों सह रही
उन लोगों के दुर्वयवहार सभी
क्यों न मैं कुछ ऐसा कह सकी
जिससे हो जाएँ बैजूबाँ वी सभी !
ऐसा नही था कि उम्मीदें सिर्फ टूटी
सत्य तो ये है कि स्नेह थी रूठी!
अंदर ही अंदर सब कुछ बदल रहा था
एक–एक शब्द अपमान-सा लग रहा था
करुणा से हदय ग्रसित हो रहा था
जो स्वपन में भी न सोचा वो घटित हो रहा था
ऐसा लगा जैसे शीत युद्ध हो रहा था
शब्दों को अस्त्र बना आघात हो रहा था
कुछ कह सकूँ मैं ये मौका मिल नही रहा था
इतना कुछ सहना कष्टदायक हो रहा था....
मेरे मौन ने उसे ऐसा बल दिया
उसने स्त्रि के अस्तित्व पर प्रश्न खड़ा कर दिया
घर के नौकर से उसने तुलना किया कर दिया।
खाना पकाने से स्त्रियों का सम्मान बता दिया
झाडू- पोछा, बर्तन धोना स्त्रियों का काम बता दिया
अनजाने में उसने अपना चिद्वा खोला दिया !
अपनी असलियत वी खुद उगल गया !
अपनी हैसियत वो खुद बता गया !
मेरे हृदय से आवाज आ रही थी
चिल्लाओ इस पर वो कह रही थी
दिखा दो तुम उसे, उसकी जगह सही
या फिर बस ये कह दो कि तुम्हे ये न लगाता सही
उसकी बात तुम्हें है दुख दे रही।
मेंने उसके सामने एक तस्वीर रखी
जिसमें उसकी बहन परिवार संग थी खड़ी
बोला देख तेरी भी है एक बहन बड़ी
सोच गर कोई ये उससे कहे, तो तेरे हदय पर क्या बीतेगी ?
उसे इस बात से फर्क ज़रा न पड़ा
वो अपनी बातों पर ही अड़ा रहा
उल्टा उसने सारा दोष मुझ पर लगा दिया
बोला, दोस्त कहा है तो सहना हीं पड़ेगा!
मज़ाक अब मुझे कांटों सा चुभ रहा
मैंने अब कुछ बोलना शुरू किया
पर फिर पता नही क्यों खुद को रोकना पड़ा
लगा कुछ कह दिया तो हो जाए न कोई दुर्घटना !
आखिरकार उसने एक ऐसा सत्य कह दिया
अनजाने में अपना मुखौटा हटा दिया
उसके बाद उसने शक्रिया कहा
मैने अपना मज़ाक उड़वा उनका टेंशन खत्म किया
हँसते-हँसते उनका पेट था दुख गया
इस अवसर पर मुझे उन्होने एक नया नाम दिया
और मुझे अपनी 'बहन जी' कह दिया
इस दौरान मेरी कई लोगों से तुलना की
और मेरे धैर्य का सराहना किया....
जब मेरी उनसे बातचीत हुई खत्म
जिसका जरिया था एक विद्वात यंत्र
जब आखिरकार मैसेजज आने हुए बंद
मेरे दिलों-दिमाग पर छा गया उमंग!
इस हर्ष के सामने सब कुछ था मंद
मानो जीत लिया हो मेने ये ब्रह्मांड अनंत !
शांति इस कदर थी जैसे हूँ बैंठी संतो संग
मैं जीत गई थी एक बहुत बड़ा जंग।
मैं बहुत बड़ी मुसिबत में फँस सकती थी
गर कुछ कहती तो दल-दल सें डूब सकती थी
बड़े अपमान की शिकार हो सकती थी
हमेशा के लिए बेजुबान हो सकती थी
अंश्रओं मे डूबा इंसान हो सकती थी
अंधेरे मे खोया एक जहाँ हो सकती थी
हमेशा के लिए गुलाम भी हो सकती थी
पर इन सभी से मैं हूँ बच सकी
क्योंकि मेरे साथ थी मेरी एक सखी
जिसको मैं 'धैर्य' नाम दे रही।
उस धैर्य का जो साथ न मैंने छोड़ा
उनके सत्य को मैने जान लिया
गर कुछ कह देती तो ऐसा न होता
गुरुर में न हटाता वो अपना मुखौटा
दिल सदा उन्हें अच्छा ही समझता
लगता मुझसे हीं कुछ गलत हुआ होगा
जो कि उसका व्यवहार हुआ ऐसा
इस ग्लानि से छुटकारा मिल गया
मानो मेरा पूरा जीवन हो सँवर गया।
उस दिन जो मुझे मिली थी खुशी
उसका कोई भी ठिकाना नहीं !
एक ज्ञान की थी ज्योति जली
जिसने की थी मेरी मार्गदर्शन सही
जिंदगी मे उससे ज्यादा नहीं मिली कभी खुशी
मानो सारी जंगे मैंने हो फतह की
मन में एक नई उमंग भरी
जिन्दगी में इंद्रधनुष की रंगे भरी
क्योंकि मेरे संग थी मेरी एक सखी
जिसे मैं 'धैर्य' नाम दे सकी....