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"फिर आऐगा वसन्त"

"फिर आऐगा वसन्त"

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हम जो चुपचाप बैठे हैं हताश से

अपनी ही लगाई गाँठों की ऐंठन में जकड़े से

प्रसन्नता से निर्वासित लोग हम

बदलेगा मौसम हमारे लिऐ भी

देखना फिर आऐगा वसन्त चुपके से

डालेगा बसेरा हमारे आँगन में

पीले नीले मिल नारंगी रंगों से

पूर पूर देगा हमारे गलियारे

खेतों में,बाग़ों में,गली कूचों में

हौले से बिखर जाऐगा  जैसे बिखर जाती है ख़ुशबू

साँसों की सरगम में,राग भोर का गाऐगा ,चूमेगा वल्लरी से झरती कलियों को

फ़ैल जाऐगा  वसन्त का जादुई उजाला सवेरे की रेशमी झालर में झिलमिल सा

टेसू के उन्मादी रंग से घुल जाऐगी  केसर सी

उसके आने की आहट से समीर बना रही अल्पनाऐं पराग कणों से

कोयल गाऐगी  मादक गीत

भौरों की गुनगुन में उसकी आमद का संगीत स्वर लहरियों में नाचने लगा है

अपने गिटार के तारों को छूकर छेड़ते ही वो उखाड़ फेंकेगा तुम्हारी उदासी की केंचुल

पपड़ाये होंठ हिलने लगेंगे और फिर से जीने लगेंगे

कब तक आखिर कब तक

भूख,हमे संत्रास देगी

वसन्त के आते ही होगा एहसास अनोखा तृप्ति का

जी उट्ठेगा जग सारा देखना

अँधेरे को चीर आऐगा  वसन्त

छा जाऐगा  हमारे दिलो-दिमाग पर वसन्त का मादक नशा

आऐगा वसन्त अपनी पूरी की पूरी जिजीविषा के साथ

 

 


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