Ajay Singla

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पारा पचास के पार

पारा पचास के पार

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आज कल हर कोई

बारिश का इंतजार करता रहता है।

पारा पचास के पार चला गया है,

पसीना पानी की तरह बहता है।


सुबह सूरज आने के बाद से ही

गर्मी बढ़ने लगती है।

दोपहर होते होते तो

जानलेवा लू चलने लगती है।


शाम होने पर भी गर्मी

थोड़ी सी भी नहीं जाती।

रात को पूरा वक्त एसी न चले तो

नींद नहीं आती।


बचपन में छत्त पे पानी छिड़कने से

गर्मी चली जाती थी।

पंखे के आगे वाली सीट

सब को भाती थी।


एक गिलास ठंडे दूध का 

प्यास बुझा जाता था।

बारिश आने पर बिस्तर लेकर

भागना पड जाता था।


छोटी सी नहर में

घंटों नहाने के बाद घर आते थे।

कभी कभी खेतों में

ट्यूबवेल पे चले जाते थे।


गन्ने का जूस और

छाछ का गिलास बहुत लुभाता था।

कभी कभी तो एक गिलास घड़े का

पानी ही मन को सुकून दे जाता था।


घड़े का पानी खूब ठंडा लगता था।

उसे भरने के लिए सबका नंबर लगता था।


आज कल फ्रिज का पानी भी

मन को शांत नहीं करता।

घड़ा तो खैर अब

कोई नहीं भरता।


कुछ देर बिजली चली जाए तो

समझो ख़राब सारी रात हो गयी है।

छत्त पे सोना तो अब

कल की बात हो गयी है।


हर कमरे में एसी है पर

छत वाला मजा नहीं ले पाते।

मैंगो और बनाना शेक भी

मन को सुकून नहीं दे पाते।


दिन में पेड़ के नीचे खेलना,

रात को छत पे गहरी नींद सोते थे।

गर्मी तो तब भी थी पर

शायद लोग किसी और मिटटी के बने होते थे।



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