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ओ! भरत-भाग के स्वाभिमान

ओ! भरत-भाग के स्वाभिमान

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मस्तक उन्नत, ले नव विहान।
करने मानव का परित्राण...
ओ! भरत भाग के स्वाभिमान!
 
कर-तल बरसत, सुर सरित् रूप
संसार-समर में अचल भूप।
विश्वास अचल दिग्दर्शक हो,
निर्वाण-पंथ प्रतिदर्शक हो।
हमसे तुम, तुमसे हम हैं,
रे! मेट दिये अन्तर महान!
 
तुम सागर से गुणधारक हो,
भूपाल! जगत् के पालक हो।
तुमने सत् रूप दिया सबको,
परिवर्तक सत् गणनायक हो।
विशाल-धरा तब पुलकित थी,
प्रगटे जग के नायक महान!
 
धरती पर बिखरी चीखें थीं,
धिक्कार रही थीं बेवश हो,
आ जाये कोई सुनने वाला,
बोले निरीह! प्रतिबन्धित हो।
क्रन्दन का रौरव नष्ट करो,
हे! आशाओं के  लक्ष प्राण।
 
भय में अभय प्रदान किया,
सबमें सद्भाव विकास करो।
तम का ज्यों सूर्य विनाश करे,
हिंसा का भाव विनाश करो।
पीड़ा होवे परपीड़न में,
हे! हृदयहार, करुणा निधान।


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