नारी
नारी
कोमलता की मूर्ति जगत में, सुंदर जगत रचाती है।
नेह-स्रोत है अद्भुत नारी, पल-पल नेह बहाती है ।
रंगमंच यह धरती पावन, अभिनय विविध दिखाती है।
बेटी बहना माता सजनी, धर्म अनेक निभाती है॥१॥
बनती भार्या प्रियतम की वह, त्याग पिता-घर आती है।
बीती यादें खट्टी मीठी, कोश सामान छिपाती है ।
तन मन से प्रियतम की होती, अभ्यर्पण सिखलाती है।
सुख देना निज धर्म मानती, पीड़ा नहीं बताती है॥२॥
अबला जगत बताता उसको, उर में शक्ति समाती है।
रक्षा करने संतानों की, रणचंडी बन जाती है ।
पीड़ा अपनों की लखकर वो, हिय में बहु अकुलाती है।
भरने आभा सकल सदन में, मोम सरिस जल जाती है॥३॥
शिक्षक बनकर संतानों की, विद्या सकल सिखाती है।
पथ भूले अनजानो को नित, हितकर राह दिखाती है।
बनकर भाग्य विधाता माता, सुख संसार सजाती है ।
जीत दिलाती निज जायों को, हार स्वयं अपनाती है॥४॥
श्रम सीकर से जीवन सींचे, विद्याधन अपनाती है।
ज्ञान गगन पर ऊँचा उड़कर, विजय ध्वजा फहराती है।
नहि पीछे पुरुषों से नारी, मिला कदम बढ़ जाती है।
नभ जल थल में बढ़कर आगे, ताकत भी दिखलाती है॥५॥