मुसाफिर
मुसाफिर
ना किसी पथिक की पदचाप,
ना फिजाओं में हवा की सरसराहट।
ना पक्षियों का चहचहाना,
आज कुदरत भी सत्य से है अनजाना।
यह पुल जिंदगी के उतार-चढ़ाव की तरह है….
न जाने कितने पथिक हमसफर बने,
कुदरत का यही नियम है।
जो कल था वह आज नहीं है,
और जो आज है वह कल नहीं होगा।
हम सब तो एक मुसाफिर हैं...
और यह पेड़ - पौधे सभी हमारे गवाह है,
इस जिंदगी का यही दस्तूर है।
सभी को बीज बोना पड़ता है,
अपना गड्ढा हमें खुद ही खोदना पड़ता है।
विरासत में खुशनसीबों को नसीब होता है सब कुछ...
जिंदगी दो पल की होती है,
आज जिंदगी रूपी पुल बिलकुल गमगीन है।
इनसान रूपी प्रकृति भी स्तब्ध है,
यह वीरानियाँ बड़ी संगदिल है...
जिसने अपना ही डेरा जमा लिया है।