मुसाफ़िर ज़िन्दगी का
मुसाफ़िर ज़िन्दगी का
दु:ख दमन को भ्रमण करूँ दुनिया
अरे ! सृष्टि में यह दर-दर है।
चलता हूँ बनकर मुसाफ़िर
कण्टकों से मार्ग भर।
कण्टकों से सीखा जीना
दर्द दे जीना सिखाया।
जीकर मरता; मर कर जीता
जीता ही या मरता ही !
मदिरापान कर मर जाऊँ मैं;
मदिरा पीकर जी उठता।
मदिरा का मैं पान करुँ या
पान करे मदिरा मेरा?
कंगाल करे मदिरा मुझको या
मदिरालय कंगाल करूँ मैं ?
तीव्र गति यह चलती दुनिया
या स्वयं मैं पंगु हूँ ?
दुनिया के 'तम' में जीता हूँ
या तम मुझमें ही जीता ?
भ्रांत दुनिया या पथिक ही
भ्रांत हूं मैं इस जग में?
चले बयार मन्थर-मन्थर
विष लिए या सौरभ लिए ?
कवि हृदय कहता है 'सौरभ'
मैं तो कहता विष धरे।
रूप जो विकराल हों
वृक्ष इसके शत्रु हों;
वृक्ष को ऐसे झकझोरे
जब तक अंतिम श्वांस न ले।
ईश्वर तेरा दास हूँ मैं
हुक्म तू दे मैं जान भी दूँ।
दानव हों या संन्यासी
तुझको ही पूजे दुनिया।
जीवन जीता दर्द में दुनिया
मर जाऊंगा तो हँस देगी।