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कीर्ति जायसवाल

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कीर्ति जायसवाल

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मुसाफ़िर ज़िन्दगी का

मुसाफ़िर ज़िन्दगी का

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दु:ख दमन को भ्रमण करूँ दुनिया       

अरे ! सृष्टि में यह दर-दर है। 

चलता हूँ बनकर मुसाफ़िर 

कण्टकों से मार्ग भर।            


कण्टकों से सीखा जीना

दर्द दे जीना सिखाया।

जीकर मरता; मर कर जीता

जीता ही या मरता ही !


मदिरापान कर मर जाऊँ मैं;

मदिरा पीकर जी उठता।

मदिरा का मैं पान करुँ या 

पान करे मदिरा मेरा?

कंगाल करे मदिरा मुझको या 

मदिरालय कंगाल करूँ मैं ?


तीव्र गति यह चलती दुनिया 

या स्वयं मैं पंगु हूँ ?           

     

दुनिया के 'तम' में जीता हूँ       

या तम मुझमें ही जीता ?

भ्रांत दुनिया या पथिक ही 

भ्रांत हूं मैं इस जग में?


चले बयार मन्थर-मन्थर      

विष लिए या सौरभ लिए ?

कवि हृदय कहता है 'सौरभ'

मैं तो कहता विष धरे।


रूप जो विकराल हों 

वृक्ष इसके शत्रु हों;

वृक्ष को ऐसे झकझोरे 

जब तक अंतिम श्वांस न ले।


ईश्वर तेरा दास हूँ मैं 

हुक्म तू दे मैं जान भी दूँ।

दानव हों या संन्यासी 

तुझको ही पूजे दुनिया।


जीवन जीता दर्द में दुनिया

मर जाऊंगा तो हँस देगी।


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