मन मेरा शून्य में है
मन मेरा शून्य में है
मन मेरा शून्य में है
हाँ मन मेरा शून्य में है
कोई सब कुछ खोकर भी खुदा की इबादत करने जाता है
कोई सब कुछ पाकर भी रोता रोता दुनिया से चला जाता है।
हे सृष्टि के निर्माता
अब अर्ज़ी मेरी भी सुनो तुम
अब बस हाँ बस इतने सख्त न बनो तुम
मन मेरा प्रीत में उसकी सपने हज़ार सजाता है
मन मेरा विरह में उसके चुभन हज़ारों पाता है
प्रेम विरह में मर जाने वाला कायर खुदा की अदालत में कहलाता है
अचरज हमें अधिक इस बात पर आता है।
हम वीर हैं
बढ़े चलो बढ़े चलो
कर्णो में यही पुकारे वो दाता सुनवाता है
कबीर कष्टों में भी,हाँ !अश्को में भी
सही सृष्टि क निर्माता को ठहरता है
हाँ मानस तू भी कर्मो का खेल समझ क्यों नहीं मुस्कुराता है !!