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कवि-मुरली टेलर

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कवि-मुरली टेलर

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मन की पीड़ा

मन की पीड़ा

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कुछ जमी पर तन के टुकड़े

कुछ जमी पर मन के मुखड़े

कुछ जमी पर जन के दुखड़ों

को बटोर ले हम

वह किसी झरना का साहिल

उसको हम कर लेंगे हासिल

भावना सी वह धरा जो 

आज हमको खोजती है

क्लांत मन सी आह को सुनकर

माँ भी पथ पे रोती है

साथ में रोता धरती -अम्बर

रोता है वह नील गगन

वह निशाकर भी रोता है

रोता है अपना चमन

हंसता अर्णव भी चुप होकर

रोता है बस आहें भरकर

चिल्लाकर बोला दिवाकर

क्यों रोते हो तुम आहें भरकर

अभी बहा दूं झर-झर-झरने

कोमलता के दीप जला दूं

समर की ठंडी लहरे बहा दूं

लहरो में होगा स्पंदन

कभी ना होगा कोई क्रंदन

पूछ लूँ मैं तप्त आंसू

आँसुओं की धार है

जो गिरी थी बून्द कोमल

उसमें भी बस प्यार है।

उसमें भी बस प्यार है।।



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