मैं वही सिन्धु नदी...
मैं वही सिन्धु नदी...
मैंने तारीख़ को देखा जो उठाकर, पाया
हर किसी को सुकूँ मेरे किनारे आया
मैंने तारीख़ को देखा है बिगड़ते-बनते
मैं भी तारीख़ का हिस्सा रही हूँ सदियों तक,
ख़ौफ़ज़दा रहती हूँ अक्सर यूँ भी,
कि मैं तारीख़ ही बनकर न सिमट जाऊँ कहीं,
जिनके जीवन का मैं आधार रही हूँ सदियों,
उन्हीं लोगों की यादों से न मिट जाऊँ कहीं!
मैंने इक माँ की तरह सींचे हैं बच्चे अपने
और इक माँ की तरह मैं भी हूँ कमबख़्त बहुत,
मुझको हर दौर ने रौंदा है सितम की जूती,
मुझपे है हर वक़्त रहा सख़्त बहुत
मुझपे माज़ी में बहुत हमले हुए हैं लेकिन,
आख़िरी हमला बड़ा ज़ोर, बड़ा बर्बर था,
बाक़ी सब घाव तो भरने को हैं भर आए मगर,
आख़िरी घाव ये भरने से नहीं भरता है,
तीर से, तेग़ से तहज़ीब नहीं मर सकती,
और तहज़ीब से इन्सान नहीं मरता है,
मैंने इन्साँ नहीं, तहज़ीब जनी है लोगों!
मुझे दुनिया ने है तहज़ीब का बिन्दु जाना,
मुझको 'इन्दौस' पुकारा था "सिकन्दर" ने कभी,
मुझको "दाहिर" से मेरे बेटे ने सिन्धु जाना!
मैं वही सिन्धु नदी जिसके किनारे तुमने,
बैठकर वेद-ए-मुक़द्दस का हर इक मंत्र कहा,
मैं वही सिन्धु नदी जिसका किनारा लोगों!
एक उम्र तलक मरकज़-ए-इल्म रहा,
मेरी ख़्वाहिश न कोई ज़्यादा तवक़्क़ो लेकिन,
हाँ मगर इतना अर्ज़ करना ज़रूरी समझा,
"मुझको फिर से है लुटेरों के बीच छोड़ दिया!
मेरे बेटों ने ही हर ख़्वाब मेरा तोड़ दिया!"
आख़िरी ख़्वाब और ख़्वाहिश है फ़क़त इतनी सी,
मेरे बच्चे मुझे देने को सहारे आएँ,
फिर से इक बार मेरी गोद हरी हो जाए,
फिर से वो लौट के सब मेरे किनारे आएँ।।
