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सीरिअस नहीं होते...

सीरिअस नहीं होते...

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'तुम कभी सीरिअस नहीं होते'
एक जुमला जो मेरे कानों में
बारहा यूँ तो पड़ता रहता है
हाँ मगर हर दफ़े बदलता है
शख़्स जो मुझसे कहता रहता है 
'तुम कभी सीरिअस नहीं होते'

तुमपे किस्मत का हाथ है शायद 
या ख़ुदा ख़ुद ही साथ है शायद! 
तुमपे छाती नहीं उदासी भी 
तुम को ग़म भी नहीं सताते हैं 
मुस्कराहट से सुबह होती है 
क़हक़हों में शाम जाती है 
आख़िर बात क्या है बोलो भी! 
'क्यूँ कभी सीरिअस नहीं होते?'

सच कहूँ? सच को सुन सकोगी क्या? 
सुन के फ़िर मन में गुन सकोगी क्या? 
गर है हिम्मत तो सच सुनो तुम भी! 
सच जो मैं आज तुमसे कहता हूँ 
जो दिए से दिआ जलाते हैं! 
अपने हालात भी छिपाते हैं 
ओढ़ लेते हैं क़हक़हे अक्सर, 
होके ग़मगीन मुस्कुराते हैं! 
'बस वही सीरिअस नहीं होते!'

'इसलिए सीरिअस नहीं होते!'


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