मै मन की हूँ सनकी नहीं
मै मन की हूँ सनकी नहीं
बुढ़ापे में एक बार फिर
लौटता है बचपन
इसीलिए तो कहते हैं,
उम्र है पचपन का
लेकिन दिल है बचपन का।
जिस प्रकार बच्चों में जिद
करने की आदत होती है,
उसी प्रकार बुढ़ापे में भी
आदमी कुछ जिद्दी हो जाता है।
इसीलिए तो कहते हैं
बुड्ढा सठिया गया है।
बुढ़ापे में आदमी की सारी इन्द्रियाँ,
शिथिल पड़ जाती हैं,
कम सुनना, कम दिखायी पड़ना,
नींद कम आना, मनमानी करना,
बचपन, जवानी को याद करना,
कभी कभी जोश से भर उठना,
बुढ़ापे की सनक जब चढ़ी तो
अपने आगे किसी की न सुनी,
कर लिया खुद फैसला,
कैसा बेटा कैसी बहू,
किसी की न सुनी।
खाँसते हुए चल पड़े
आइसक्रीम की दूकान
एक नहीं दो दो खाई,
फिर आकर पड़ गए चारपाई,
हाल बुराहाल पर देखिये कमाल,
मानने को तैयार नहीं।
वे इसी कारण पड़े बीमार,
कहते कि चंदू ने भी तो खाई
वह क्यों नहीं हुआ बीमार,
डॉक्टर ने जब मना किया
तो खाँसते हुए बोले
दवा खाना जरूरी है क्या,
मैं तो हूँ भला चंगा,
मुझसे मत लो पंगा।
क्यों बूढा समझ रखा है मुझे?
मैं वो नहीं हूँ जो तुम समझते हो,
मैं वो हूँ जो तुम नहीं समझते हो,
मै अपने मन की हूँ,
कोई सनकी नहीं हूँ।
