क्यूं ?
क्यूं ?
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मैं औरत क्या इसलिये
मेरी कोई पहचान नहीं?
सिर्फ इस्तमाल होता
क्यूं मेरा कोई वजुद नहीं?
माँ-बेटी नाते सारे
मेरे आसपास लिपटे
किसी भी बात में मेरा
बोलना भला क्यूं समेटे?
मै हुं पराया धन हरदम
एहसास दिलाते हो
घर की शानों-शौकत को
क्यूं जल्द ही भुला देतो हो?
फिर भी मैं पराई हूँ
जानती हुं यह बात
मेरे ही नसीब में होती
क्यूं हरदम काली घनी रात?