क्या तुम कभी
क्या तुम कभी
1 min
468
तन्हाई का मेरी तुम अब क्या सबब ढूंढते हो?
मंज़िल का पता तो अब तुम किसी और से पूछते हो
महकते थे गुल यहां हर दिन गुलशन में
बंजर कर इस ज़मीन को अब कहीं और सराब ढूंढते हो
रांझे सी मोहब्बत का ऐलान जो तुम करते थे
अब मन्नत के धागे तो अब किसी और संग बांधते हो
रश्क होता था जो तुम्हे जिस चांद की ख़ूबसूरती पर
किसी और को शायद अब अपना चांद बताते फिरते हो
आँख मूंदे भी पहुंच जाया करते थे जिस गली
अब उस गली से क्या कभी तुम गुजरते हो?
