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Sakhi Singh

Others

3.5  

Sakhi Singh

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कुछ सपने बोये थे

कुछ सपने बोये थे

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१.      कुछ सपने बोये थे

 

उसने कुछ सपने बोये थे,

जमीन की करी गुडाई थी,

खेत की मुंडेर बनायीं थी,

बहुत  करी सिचाई थी,

फिर बो दिए सपनों के बीज |

 

सपने बेटे की पढाई के

बेटी की सगाई के

माँ बाबा की दवाई के

चुडी भरी बीबी की कलाई के

रोप दिए थे नन्हे पौधे |

 

उम्मीद भी यही थी –

की कल जब ये पेड़ पनपेंगे

तो सपने भी जवान होंगे

धीमे धीमे परवान होंगे

और मिलेगा सुन्दर फल |

 

सपने सब बड़े हो रहे थे

आँखों के सामने खड़े हो रहे थे,

कोपलें मुस्कुरा रही थी

नन्ही कलियाँ खिलखिला रही थी

सपने बढ़ने जो लगे थे |

 

बेटे की उम्मीद की डोर

से उडी पतंग सी ,

बेटी की मन में भी कई

नयी नयी उमंग थी

सपनों ने ली अंगडाई थी |

 

माँ बाबा की आंखों में

नए से रंगीन ख्वाब थे

 

बीबी की कलाई में

चुडियों के रंग बेशुमार थे,

सपने रंग ला रहे थे |

 

अचानक सपने बरसने लगे,

ठंडी आग में झुलसने लगे,

अश्क बन आँखों से ढलकने लगे,

शुष्क रेत से सपने दरकने लगे ,

सपनो की मौत होने लगी थी |

 

आँखों आँखों में आँखों ने

तब  कई बातें की थी ,

जिन सपनों में रंग भरने को,

कितनी जवां रातें थी दी ,

वो सारे सपने आँखों के

स्याह अंधेरे ने आ घेरे थे |

 

सिर्फ एक सवाल था मन में

कहा से होगी बेटे की पढाई

कौन करेगा अब बेटी से सगाई

माँ-बाबा की दवा नहीं आई

सूनी रहेगी बीबी की कलाई |

 

ध्वस्त हुए  मुंडेर पे बैठे,

सीचे गए खेत को और बहते,

वक़्त से पहले समय के रहते,

समस्त सपने बीज रूप में ही,

सड़ने – गलने लगे थे |

 

सिर्फ एक आभास था अब,

कुछ नहीं हाथ था अब ,

बोये हुए कुछ सपनो की,

अब सिर्फ बची लाश थी,

जिन्दगी उसके लिए परिहास थी |

 

आज सबकी भूख मिटाने वाला ,

अपनी ही  भूख से डर गया,

आँखों में बसे स्वप्न क्या टूटे

बिखरे सपने देख फिर किसान

वक़्त से पहले ही  मर गया |

 

क्या कोई हाथ नहीं ऐसा

जो बड़ता आगे और कहता

तू ख्वाब नए फिर बो करके

सपनो को जिंदगानी देना,

पर न तू कभी जान देना |


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