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Vikram Kumar

Others

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Vikram Kumar

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कोई

कोई

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कांटे बिछा रहे सब, पर चुन रहा न कोई

संसार में किसी की अब सुन रहा न कोई!


फूलों की करते आशा , कांटों के बीज बोके

खुद आगे बढ़ना चाहें, औरों के राह रोके

मन में है छल सभी के, शगुन रहा न कोई

संसार में किसी की अब सुन रहा न कोई!


औरों को करे खुद, न परेशान होना चाहे

हर आदमी यहां का, धनवान होना चाहे

अवगुण हुए हैं इतने कि गुण रहा न कोई

संसार में किसी की अब सुन रहा न कोई!


सबके दिलों में बसती है स्वार्थ की कहानी

मानव के इस चलन से मानवता पानी-पानी

नाते उघड़ रहे सब, पर बुन रहा न कोई

संसार में किसी की अब सुन रहा न कोई!


न पुण्य दिख रहा है , न धर्म दे दिखाई

हर ओर दोष दिखता , कुकर्म दे दिखाई

सब हो गए दुशासन, अर्जुन रहा न कोई

संसार में किसी की अब सुन रहा न कोई!


आगे अपने कुछ भी, न देखता है कोई

इंसान तो है जागा , पर आत्मा है सोई

सुन वक्त का क्रंदन, करूण रहा न कोई

संसार में किसी की अब सुन रहा न कोई!



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