खेल बचपन के (Day13)
खेल बचपन के (Day13)
ये झिझकती हुई सर्दियों की हवा, कुछ ठिठकती हुई चुलबुली सी हवा
इस हवा ने छुआ तन महकने लगा, मन में यादें उठीं, दिल धड़कने लगा,
याद आती रहीं, मुस्कुराती रहीं, गीत भूले हुए गुनगुनाती रहीं…
खो गया मन कहीं पर फिसलने लगा, दिल पे ख़ुद का नियन्त्रण भी हटने लगा,
याद आने लगे वो लड़कपन के दिन, मस्त से रेत के घर बनाते थे जब,
दौड़ पड़ते थे सड़कों पे बिन बात के, कोकोकोला के ढक्कन उठाते थे हम,
वो कबड्डी, वो खो- खो, वो उड़ती पतंग, गुड्डे - गुड़िया, वो लट्टू, वो कंचे थे जब,
गोटियाँ और चूड़ी के टुकड़े ग़ज़ब, दोस्तों को दिखा कर चिढ़ाते थे हम,
खेलते- खेलते रात होती अगर, खूब पिटते थे
हम घर पहुँचते थे जब ,
पेड़ कोई भी हो तोड़ लाते थे फल, डांँट माली या अम्मा की खाते थे हम,
चाॅक लेकर दीवारों को रंग देते थे और ख़ुद को पिकासो समझते थे हम,
बाल की चोटियां गूँथती जब बहन, सिर हिलाते जो, थप्पड़ भी खाते थे हम,
बेर, अमिया, मकोय्या तो अमृत से थे, डांट खा कर भी चुपके से हँसते थे हम,
मुँह फूला कर कभी बैठ जाते थे जब, थोड़ी पुचकार से मान जाते थे हम,
कूदना, फाँदना, दौड़ना क्या कहें? हाथ, घुटनों पे दस घाव खाते थे हम,
बचपना खो गया, गुम गई वो खुशी, ऐसा लगता है कोई हिमाकत हुई…
क्यों बड़े हो गये और समझदार भी? घाव तन पर नहीं दिल पे लगते हैं अब,
दर्द होता था बचपन में, रोते थे तब, आज हँस कर सभी दर्द पीते हैं हम,
याद आती हैं बचपन की नादानियाँ, काश पहुंँचे जहाँ दूधिया हो हँसी,
ओ महकती हवा ! थाम उँगली मेरी, ढूँढ लाते हैं बचपन की खोई खुशी,
भूल आये थे बचपन के उस बाग में, मुट्ठियाँ भर के लाते थे चिलबिल कभी,
क्या टंगी होंगी अब भी उसी डाल पर, थोड़ी कच्ची हँसी और अल्हड़ ख़ुशी ?
छोड़ आए थे उस पेड़ की डाल पर, भाग आये थे माली के डर से सभी।