कालचक्र
कालचक्र
कालचक्र का पहिया घूमता रंग नए दिखलाता जाए
राजा भये रंक अनेकों, समय क्षीर कोई थाह न पाए
काम मोह लोभ दम्भ सब, कुछ पल प्रपंच छल माया
क्षण भंगुर बुलबुले मात्र हम, चिर यौवन धुंधलाती छाया।
युग पाषाण से चलते चलते पहुंचें चंद्रमा द्वार
नए यंत्र तंत्रों में उलझे कोमल मन के तार
मुट्ठी में सीमित संसार, पर निकट न मित्र न परिवार
मायावी नगरी में भटकते, मुनि ज्ञान ध्यान सुविचार।
खेत किसानी छोड़ कृषक जाते महानगरी की ओर
हल बल त्याग हो मजूर दिहाड़ी, किस बन नाचे मोर
धरती परती छोटी सिमटी, झरोखे भर आकाश
गमले में पलते स्वर सपने, बौने वृक्ष समान।
नीर नदी वृष्टि सृष्टि ने गढ़ा मन आत्मन अस्तित्व
क्यों करता व्याकुल मानुष नष्ट कलरव पंछी के नीड़
काटे मूर्खबुद्धि मति मंदा, बैठा जिस डाल अधीर
पंच तत्व माटी का पुतला, इठलाये बन राज वज़ीर।
जो बोया बीज काटेगा, तब पाये मोक्ष की राह
समय व्यूह को बेन्ध पाए न अर्जुन न अभिमन्यु प्रहार
कर्मों सत्कर्मों का पलड़ा निस दिन रचता भाग
हर दस सिर वाले रावण को अंकित एक राम का वार।
