जिंदगी के दायरों से बाहर
जिंदगी के दायरों से बाहर
सच!
अपनी अस्मिता को
किस कदर बौना कर
दिया मैंने,
समय के साथ-साथ,
तमाम उम्र के विरोधाभासों के
बावजूद स्नेह रज्जू मजबूत
होती रही,
लोगों के शक संदेहों से अलग
एक स्नेहल रिश्ता पल्लवित
होता रहा,
दूरियों के बावजूद कभी-कभी
अपनों के बीच अजनबी से दिखे,
मैंने स्नेहिल भावनाओं के द्वारा
संभालना चाहा ,
सच कहूं तो विद्रूपदाओं से जन्मे
तुम्हारे भटकते अहं को
आधार देना चाहा और इस
चाहत में मैं बौनी होती चली गई,
तुम नहीं समझोगे शायद,
अपने अहम की पैनी दीवार को
समेटा है मैंने,
जानते हो अंधेरों से घिर जाने का
दुख अथवा टूटते इंद्रधनुषी सपने
उतने नहीं चुभते,
जितना सब कुछ समझते हुए भी
कुछ कह नहीं पाना....
