ज़िक्र होगा।
ज़िक्र होगा।
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मेरी आह जो भी सुना होगा
बड़ी ज़ोर से हंसा होगा
गाफिल रहा वो मुझ से फिर भी
गोश-ए-जिगर उसका चीखा होगा
नहीं वो दरमियां फिर क्यूं
अफ़साने में उसका ज़िक्र होगा
फूट रहे दिल में आग के फफोले
मगर ज़ुबां पे अल्लाह अल्लाह होगा
मसीहा नहीं मोहब्बत के जहां में
फिर भी जहां में कारे मसीह होगा
बहस छिड़ी है मेंबर से कि हिसाब होगा
अहल-ए-दानिश कह रहे कुछ नहीं होगा
बस कि अहले इल्म से सवाल ये पूछना
क्या तुम्हारा किया धरा यहीं ख़त्म होगा
नहीं मक़सद हुस्न पे ग़ज़ल कहना
"प्रेम" फिर भी उसका क़सीदा होगा
