जब सोयी कमलिनी !
जब सोयी कमलिनी !
ताल में जल की शैय्या पर
बैठी अकेली
सोच रही थी कमलिनी
धर हथेली गाल पे !
देखा ,,,,,,
दूर ही से आ रही थी
चांदनी से सजी सांझ
था कहीं ,,,,,,
शाम का धुंधलका !
तो थी कहीं -
अलविदा होते
सूरज की लाली !
लगता था ऐसे
जैसे आसमान से ,,,,,
डाले जाल कोई मछेरा !
दूर क्षितज पर
खनकती चूड़ियों के
भांप इशारे
जाग उठी तन-मन की संधि
तब ,,,,,
टीका चांद का -
लगाकर उतरी रात !
सुहागिन सिवानें
तलाश रही थी कुछ
कि दूर कहीं ,,,,,
एकाकी खड़ा महुआ
लगा टपकने
रेत भ्रामरी बन गुनगुना रही थी
दस्तक दे रही थी हवा
सब ,,,,,
पल ही में गुम हो गए-
उनींदी पलकों तले !
प्रतीक्षा-कथा सुनाती
महकती चमेली
चहचहाते पंछी
भी तो सोने लगे थे -
बरगद की डाल पर !
जब सोयी थी कमलिनी !