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Radhika Nishad

Others

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Radhika Nishad

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जब कभी मैं लिखने बैठूँ

जब कभी मैं लिखने बैठूँ

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जब कभी मैं लिखने बैठूं तो यादों की गली से गुजरती हूं..,

कभी अकेले तो कभी अपने पापा के साथ गुजरती हूं

वो मेरा कभी पापा के कदम से कदम मिला लेना तो

कभी उनके छोड़े कदमों के निशान पे अपने कदम

रख गुजर जाना याद आ जाता है,

जब कभी मैं लिखने बैठू तो यादों की गली से गुजरती हूं...

कभी पापा के बाहों में अपनी बाहें फसाएं गुजरती हूं, 

तो कभी हाथ थामे चलती हूं, कभी उन्हें डांट लगाती गुजरती 

तो कभी किसी बात पे जोर से हंसते गुजरते है दोनों, 

जब कभी मैं लिखने बैठू तो यादों की गली से गुजरती हूं...

वो मोहल्ले की पतली सी गली से होता है 

आज भी गुजरना पर आज वो बीते दिनों वाली बात नहीं है,

क्योंकि अब पापा साथ नही है अब वो कदमों के निशान नही मिलते 

उन धूल भरी सड़कों पर अब इन बाहों में बाहें डाले पापा की बाहें नही है,

है, आंखो में आज भी नमी, 

और होंठ थरथराते 

हाथ कांपते वो सोच बीता गुजरा कल...,

जब कभी मैं लिखने बैठू तो यादों की गली से गुजरती हूं

तन्हा अकेली मायूस चुपचाप गुजरती हूं...

जब कभी में लिखने बैठू तो यादों की गली से गुजरती हूं...!!



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