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हद है

हद है

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दिमागी दिवालियेपन की हद है

ख्वाबों में जीने की जो आदत है।

ईमानदारी से मेहनत के बगैर ही

चाह बेशुमार दौलत की बेहद है।


हश्र पता है सबको अपना मगर

अपनी नज़रों में सब सिकंदर है।

नंगापन, ओछापन, बदजुबानी ही

शोहरत के लिए अब ज़रूरत है।


रखकर तहजीबों को ताक पर

करते बुजुर्गो से रोज बगावत है।

क्या करेगा अजय तू चीख कर

सुनता कौन तेरी यहाँ नसीहत है।



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