गुनगुनाती धूप
गुनगुनाती धूप
गुनगुनाती धूप का इंतजार है।
ठंडे पड़ रहे रिश्तों से मन बेज़ार है।
अपनों से ही जाने क्यों हो रही तकरार है ?
एक दूसरे के बीच क्यों खत्म हो रहा प्यार है ?
यह समय का बदलाव है या अपनों से मिला घाव है ?
झूठ, धोखा और फरेब ने ये कैसा जाल बिखराया है।
अपनों को ही अपनों से क्यों कर दूर करवाया है ?
रिश्तो के बीच भला क्यों छाया अंधकार है ?
आपस में क्यों नहीं बढ़ रहा विश्वास और प्यार है ?
सहनशीलता खत्म हुई क्यों ?
क्यों सब एक दूसरे को छोड़कर जाने को तैयार हैं ?
आधुनिकता की आंधी ने
हमारी संस्कृति को क्यों ढक दिया ?
क्यों खत्म हो रहे हमारे संस्कार हैं ?
यह असंतोष के बादल जो छाए हैं चहुं और,
अराजकता का बढ़ रहा है क्यो जोर ?
क्यों नहीं मानवता का हो रहा सम्मान है ?
कब छटेंगे ये अविश्वास के बादल ?
गुनगुनाती धूप का इंतजार है।