ग़ज़ल
ग़ज़ल
1 min
365
चाहता था मैं लेकिन मिला ही नहीं
बाग में फूल अकेला दिखा ही नहीं
दरबदर मैं इसे ले के फिरता रहा
मेरी क़िस्मत का सिक्का चला ही नहीं
मेरे घर से गया चोर होकर निराश
दर्द को छोड़ कर कुछ मिला ही नहीं
एक दरिया मेरी आँखों से बहता है
जो समुन्द्र कभी पा सका ही नहीं।
