ग़ज़ल
ग़ज़ल
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उन की कोई भी इज्जत नहीं है
जिन के सर पर कोई छत नहीं है
बात क्या है समझ आए कैसे
तुम को सुनने की आदत नहीं है
हाँ लिखा है ये ख़त खून से पर
माशूका के लिए ख़त नहीं है
बंद कर के ये आँखें सुनो बस
ये वतन से मुहब्बत नहीं है
मांगते हो हुक़ूमत से इन्साफ़
तुम को इतनी लियाक़त नहीं है ?
मांगते इल्मो-तालीम सस्ती
दे दो इतनी भी ग़ुरबत नहीं है
होगा 'आलोक' मत यूँ लड़ो तुम
वक्त दरिया है परबत नहीं है।।