एक पंछी से मैंने दौड़ लगाई
एक पंछी से मैंने दौड़ लगाई
एक पंछी से मैंने दौड़ लगाई, न जाने यह मेरी हिम्मत थी
या अपने ही आत्मविश्वास से लड़ाई।
उसके पास पंखों का वरदान था,
और मेरे दो पैर अभागे,
मुझसे कहते,
ठहर जा, तेरी औकात नहीं है इस नन्ही के आगे।
दोनों का उत्साह छलक रहा था,
पर भय तो मानो मेरे ही हिस्से पनप रहा था,
शायद उसके लिए उड़ना महत्त्वपूर्ण था,
पर मेरे व्याकुल मन ने जीत को श्रेष्ठ माना था।
आखिर दौड़ शुरू हो चुकी थी,
वह उन्मुक्त गगन की प्रियतमा थी,
और मैं,
मैं तो अपने ही विचारों के भार से निस्तेज थी।
नन्ही का साहस अकल्पनीय था,
निष्पक्षता का तो उसे भी भान था,
मुझे उसके पंखों की ईर्षा थी,
पर उसे अपने पैरो पर भी अभिमान था।
उसने उड़ना छोड़कर दौड़ लगाई,
मैं अपने आकार की उपमा कर इतराई,
पर यह मतभेद भी मेरी हार थी,
यह बात उस पंछी ने बड़ी सरलता से समझाई।
गंतव्य अब पास था,
मेरे भी पैरो में उल्लास था,
कूदकर मैं लक्ष्य तक आ ठहरी,
पर उस नन्ही के लिए यहाँ रुकना अपराध था।
उसका उद्देश्य क्षितिज है, जीत नहीं,
वह महत्वाकांक्षी है, ढीठ नहीं,
उसके लिए पैर और पंखों में मतभेद नहीं,
इस पूर्णता के कारण उसे मृत्यु का भी भय नहीं ।
वह सीमाहीन लक्ष्य से प्रेरित है,
वाद-विवाद और विचारों से परे है,
शायद इसलिए मनुष्य की तुलना में सुखी,
और सुंदर पंखों की अधिकारी है ॥