एक ज्योत
एक ज्योत
हर उठते सूरज के साथ,
ढलती है जीने की आस ;
हर ढलती शाम के साथ,
जी उठता है लिखने की प्यास;
कवि बनने की चाहत, जग जाती है मन में,
सुकून सा दे जाता है अंदर छिपा लेखक जीवन में।
कितनी हँसीन शामें, कितने ही हसीन लम्हें वो,
न देखें इन नैनन ने,
मुँह फेर जाता है क्यों जब भी चाहता हूँ आना तेरे आँगन में ?
बस कर यः बैर, और न सहा जाएगा,
ख़ामख़ा तकलीफ देना ही क्या तुझे सर्वश्रेष्ट बना जाएगा ?
खामखा तकल्लुफ देने से ही क्या तू सर्वशक्तिमान कहलाएगा !?
ख़ामख़ा: ख़ामख़ा: ख़ामख़ा !!
जीवन भी है क्या ख़ामख़ा?
तकलीफें, दुःख-दर्द भी ख़ामख़ा?
बस कर दे, अब तू, मिटा दे इस क्षण यूँ;
और ना सहा जाएगा;
मनभीतर जो तू है बसा,
प्रत्यक्ष कब सामने आपएगा??
अब और न सहा जाएगा।
अब और न सहा जाएगा।
अब और न सहा जाएगा।
