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Siddharth Tripathi

Others

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Siddharth Tripathi

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दस्तकें

दस्तकें

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कई मीठी दस्तकों को नज़रअन्दाज़

कर देते हैं एक पहेली सुलझाते हुये।

ये तो ख़ुद ही जानते हैं क्या बीतती है

ख़ुद को ख़ुद की कहानी सुनाते हुये।

किवाड़ ख़ुद खुलेगी, इस उम्मीद में

बैठ जाते हैं कुछ लोग,

जब सब्र ख़त्म होता है, फिर दिखते हैं

ख़ुद ही चाभी खंगालते हुये।।


सोच रहती है ये किवाड़ के उस पार

कोई होगा कहानी बतलाने को।

खुलने के बाद चलता है पता, रौशनी

तो उस पार भी थी ज़िन्दगी बिताने को।

पर अंतर होता है बस एक इस पार

और उस पार में।

विकल्प था उस पार कुछ ख़ारिज

करने का, पर इधर कोई गुच्छा भी

नहीं खंगालने को।।


फिर से ढूँढने में रौशनी एक डर सा

लगता है।

कभी कभी एक और दरवाज़ा दिखता है, 

पर वो भी पिछले सा ही लगता है।

अब न सब्र बचा होता है न कहानी

बची होती है।

अंत में उन किवाड़ों के बीच रहना ही

घर लगता है।


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