देश- एक असामित दायरा
देश- एक असामित दायरा
धरती का बेजान सा टुकड़ा, कैसे कहलायेगा पूरा देश
आत्मा जिसमें बसती देश की, होती बुरी कल्पनाओं से साँसें तेज।
सीमित करें कैसे भूखंडो में, झील, नदी सागर का समावेश
गाँव, शहर विरानियाँ भी होती, मौसम आते बदलकर भेष।
भिन्न धर्म और विभिन्न जातियाँ, न फिर भी किसी के मन में द्वेष
सर्वोपरि है देशभावना, राष्ट्रहित में होते एक।
पशु, पक्षी और नर विचरते, हो वन-उपवन कहीं सूखा रेत
कर्म भूमि होती सभी जीव की, फसल, खलियानों से लहराते खेत।
मानचित्र में उसको बाँधोगे कैसे, राष्ट्र-समर्पित जहां का जनादेश
रोके से भी रोक सकों न, प्यारा जिनकों अपना देश।
भिन्न परम्पराएँ विभिन्न संस्कृतियाँ, विभिन्न भाषा-कलाओं का जहां समावेश
अपने धर्म पर सभी अडिग है, इसे कहते है वास्तविक देश।
