बुढ़ापे की सनक
बुढ़ापे की सनक
अनगिनत ख्वाब जो सजाए थें,
सब चश्मों में सिमट आए हैं,
कभी हमने भी बचपन खेला था,
आज झुर्रियों को सजा कर आए हैं।
कभी रूप हमारा यौवन था,
आज मन भी पावन लगता है,
कभी फ़िज़ा में उड़े चलते थें,
आज हवा से दम घूँटता पाया है।
कभी घर में रहना दूभर था,
आज घर का कोना पाया है,
कभी गंगा नहाने जाते थें,
आज आँखों से गंगा बहाया है।
कभी हमसे जमाने हुए करते थे
अब अफ़सानों में फँसने आए हैं,
कभी सूरज-सा चमका करते थें,
आज अंधियारे में जहां पाए हैं।
सोचा था हम मौज करेंगें,
अपने जीवन को भरपूर जिऐेंगे,
ज़िदगी बेफ्रिकी में जी ली,
बुढ़ापा लेकिन चैन से जिऐंगें।
बन बैठा हैं फिर से दिल बच्चा,
हो गया बड़ा कमजोर हैं,
पता हैं संतान नही हैं ठौर हमारा,
पर आश की बंधी एक डोर है।
तजुर्बे की बात क्या कर दें,
अपनी ही करनी आई हैं,
जवानी में न दिया साथ किसी का,
समय ने उल्टी चक्की चलाई हैं।