अनजान सफ़र
अनजान सफ़र
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इतना सताना मुनासिब नही ज़िन्दगी,
जियो और जीने दो का रूख अपनाओ,
मैं क्या घृणा करूंगी कभी किसी से,
मेरी कभी मुझसे तो पहचान कराओ...!!!
हर दिन ताज़ा होते हैं ज़ख़्म सीने में,
मरहम नहीं है तो नमक भी न लगाओ,
हम ज़िंदा ही हैं तेरे संग ओ ज़िंदगी
मुझे तुम अब ज़िंदा लाश न बनाओ...!!!
मानती हूँ ज़िंदगी, अभी नादाँ ही हूँ मैं,
उसूल-ए-ज़िन्दगी से बहुत दूर खड़ी हूँ
क्या इतना ग़लत है सबसे मोह रखना,
तो इस जगत-मोह में क्यों फँसी हूँ....!!!
कभी फुर्सत से फुर्सत निकाल कर देख,
मेरे कुछ जज़्बात संभाल कर देख,
अंधेरा छा चुका हैं इस कद्र ज़िन्दगी में,
इंसानियत का दिया तू जला कर देख...!!!
