भटकाव
भटकाव
कभी- कभी निकल जाती हूं
छांव की तलाश में,दूर
घने दरख्तो को ढूंढने सुदूर
पर नहीं मिलता मुझे सुकून,
वहां भी......
जिसकी चाह थी पाने की
तब मन परिंदा बन ,
फड़फड़ाने लगता है
पंख फैलाए,भरता है वह
लंबी .. उड़ान
बढ़ जाता है,आगे दूर और दूर
और भटक जाता है, राह से
न जाने कब ......कौन?
अनजाने ,अनदेखे रहस्य
रोमांच खींच लेता है उसे,
फिर उलझा देता है,
यह वक्त पुन:,
अपने उसी ,मोह माया के पाश में
और हंसता है ,
ठहाका लगाकर
मेरी बेबसी,मेरी लाचारी पर ।
ठगी सी रह जाती हूं,
फिर एक बार, आज भी......
जिंदगी का बोझ लिए कंधे पर
बस चल रही हूं ,बढ़ रही हूं,अनवरत
न जाने किन ,पथरीली राहों पर
जो शायद . किसी मंजिल तक
नहीं पहुंचा सकते है ,मुझे कभी
पर ठहराव भी तो, मुमकिन नहींं
अब मंझधार में हूं मैं ....
लहरों से ही उम्मीद है अब तो ,
शायद वे ही बहा ले जाएं ,
अपने साथ कभी.. और दूर
दरिया के किसी छोर पर पहुंचा दें
हां मुमकिन तो है..
लेकिन,न जाने कब. खत्म होगी
यह अधूरी तलाश मेरी ।