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Indu Kothari

Others

4.5  

Indu Kothari

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भटकाव

भटकाव

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     कभी- कभी निकल जाती हूं 

     छांव की तलाश में,दूर

     घने दरख्तो को ढूंढने सुदूर

     पर नहीं मिलता मुझे सुकून,

     वहां भी......

     जिसकी चाह थी पाने की

     तब मन परिंदा बन ,

     फड़फड़ाने लगता है

     पंख फैलाए,भरता है वह

     लंबी .. ‌उड़ान 

     बढ़ जाता है,आगे दूर और दूर

    और भटक जाता है, राह से 

    न जाने कब ......कौन?

    अनजाने ,अनदेखे रहस्य

    रोमांच खींच लेता है उसे,

    फिर उलझा देता है,

    यह वक्त पुन:,

    अपने उसी ,मोह माया के पाश में

    और हंसता है , 

    ठहाका लगाकर

    मेरी बेबसी,मेरी लाचारी पर ।

    ठगी सी रह जाती हूं,

    फिर एक बार, आज भी......

    जिंदगी का बोझ लिए कंधे पर

    बस चल रही हूं ,बढ़ रही हूं,अनवरत 

    न जाने किन ,पथरीली राहों पर

    जो शायद . किसी मंजिल तक

    नहीं पहुंचा सकते है ,मुझे कभी

    पर ठहराव भी तो, मुमकिन नहींं

    अब मंझधार में हूं मैं ....

    लहरों से ही उम्मीद है अब तो ,

    शायद वे ही बहा ले जाएं ,

    अपने साथ कभी.. और दूर

    दरिया के किसी छोर पर पहुंचा दें

    हां मुमकिन तो है.. ‌

    लेकिन,न जाने कब. खत्म होगी 

     यह अधूरी तलाश मेरी ।

       


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