बेरंग बचपन
बेरंग बचपन
मैं ललित तनुज हूं नन्हा सा
मुझे वह अल्लहड़ बचपन चाहिए ।
लड़खड़ाते कदमों पर किताबों का बोझ ,
संभालने से नहीं संभालता है,
चलना है ,कूदना है ,घर आंगन,बाग- बगीचे में, यह चार दिवारी के बंद कमरे में,
मेरा दम घुटता है ,
मुझे चमचमाती रंग-बिरंगे कपड़ों में ,
कंचें, डिबिया ,टूटे खिलौने के टुकड़े समेटना है।
यह बेरंग पहनावा मुझे रास ना आता है ,
यह काली - सफेद रेखाएं ,
मुझे समझ नहीं आती ,
मुझे अपनी कल्पनाओं के दुनिया में रंग भरना है,
मुझे ना बांधों इस अनुशासन की दीवारों में ,
मुझे अभी बदमाशियों की हद पार करना है ,
लौटा दो मुझे बस मेरा वह लड़कपन,
बांकपन , सुकोमल, सुकुमार बचपन
वो सुन्दर,सजीला, न्यारा सा बचपन।
