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VINOD PANWAR पंवार_विनोद

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VINOD PANWAR पंवार_विनोद

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बचपन

बचपन

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हर वक़्त जब शोर जो अख़बारों में रहता था

किसान भी तब घर की दीवारों में रहता था


वो दिन भी तो कितनी मोहब्बत लपेटे थे

बच्चा हर घर का जब गलियारों में रहता था


बहुत बार कत्ल होते हुए देखा है उसका भी

सभ्य समाज जो हर वक़्त विचारों में रहता था


होड़ लोगों में अब कोठी बंगलों की लगी है

पर जीने का मजा मकान हवादारों में रहता था


कल समेटी थी विरासत मैंने अपनी यादों की

बचपन में जब अध नंगे यारों में रहता था


चुनाव का दिन तो रविवार मनाया जाता था

कहाँ तब ध्यान हमारा सरकारों में रहता था


कितना दूर तक था फैला परिवार भी अपना

चंदा मामा तब अपना इक सितारों में रहता था


मांगने से मिल जाती थी खुशियां भी सारी

कहाँ तब मैं ऐसे बड़े-बड़े बाजारों में रहता था


इन पढ़े लिखों में जीना मुश्किल है ए पंवार

जिंदगी अच्छी थी जब में गवारों में रहता था


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