बौने पंख परिंदा
बौने पंख परिंदा

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उठीं थीं आंधियाँ तब ही,
जब आहट थी बहारों की।
रुकी हर स्वप्न की डोली,
प्रतीक्षा में कहारों की।
रहा फिर भी भरोसा,
बौने पंखों पर परिंदे को।
अकीदा बन नहीं पाया कभी,
चादर मजारों की।