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"अपना शहर"

"अपना शहर"

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अपने शहर में यूँ,

हमें यारी नही भाती।

यहाँ मतलब के हैं लोग, 

जो हमको नहीं आती।।


बगल में दर्द से यदि,

कराहता भी रहे कोई।

शहर में जनता अपने,

घरों में रहती है सोई।।


अपने शहर में हर तरफ,

सड़कों का बिछा जाल है।

अधिकतर लोग यहाँ पर,

रहते भी मालामाल हैं।।


गरीबों की यहाँ सुनने वाला,

न होता कोई भी लाल है।

अन्याय को कहने की,

किसी की न मज़ाल है।।


अपने शहर की आबोहवा,

इधर कुछ वीरान सी है।

चकाचौंध तो चारों तरफ़ है,

मगर लोग परेशान से हैं।।


हमारे गाँव में लोग,

बहुत धनवान नहीं हैं।

मगर लोगों में जीवित,

अभी इंसान तो हैं।।



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