अनजाना हूं
अनजाना हूं
अनजाना हूं, मैं अपनी राहों का
टूटा परिंदा हूं, में आसमानों का
जितना चलता, मंजिल की ओर,
उतना दर्द होता भीतर की ओर,
निरुत्तर हूं, मैं खुद के सवालों का
अनजाना हूं, मैं अपनी राहों का
जिधर देखूं उधर बनावटी चेहरे,
किधर भी न दिखते असली चेहरे,
आंखे है, पर अंधा हूं, नजारों का
पराये अक्स को ढूंढ रहा साखी,
खुद की आज भूल रहा तू पाती,
आईना हूं, पर पराये ख्वाबों का
अनजाना हूं, में अपनी राहों का
छोड़ दे पर किताबों को पढ़ना
पहले खुद को है, तुझे समझना
फिर कभी तू अनजाना न रहेगा,
खुद से तू बुझा सितारा न रहेगा,
जाना पहचाना दीपक हूं, साखी
आजकल में खुद के उजालों का
नहीं किसी से शिकवा, न गिला,
मैं खुद सच हूं, अपने ख्वाबो का
नहीं अनजाना हूं, अपनी राहों का
जानता हूं, आज पहचानता हूं
जिंदा इंसान हूं, खुद की सांसों का।