अकेला
अकेला


मैं अकेला सबके लिए कैसे करूँ?
अकेला तो सूर्य भी नहीं कर पाता
रौशन पूरी धरती को।
धरा फिर भी चलना तो नहीं छोड़ती।
घूमके घंटों में पा लेती है किरणों को।
कौन कहता है कि उगता है सूर्य?
वो तो धरती है जो मिलवाती है सूर्य से।
बदल देती है तारीख।
और आश्चर्य!
तुम पूजते हो उगते सूर्य को।
अकेला सूर्य क्या करे?
घनघोर आग का भार गति बाधित करता ही है।
सुनो! ओ संगिनी!
मेरे अंतर में भी बहुत तरह की आग हैं।
मुझे करती है गतिहीन।
तुम धरा हो... किरणें तुम्हें मिलेंगी ही।
लेकिन तब मुझे मत पूजना।
वह तुम्हारा सामर्थ्य है, मेरा नहीं।
काश होता।