अग्नि-परीक्षा
अग्नि-परीक्षा
माँ यदि मैं होता वहाँ,
तो मेरे जीते जी,
किसी की ना होती हिम्मत,
जो
पूछ भी लेता
तुझसे अग्नि-परीक्षा के बारे में।
'मेरी माँ पर संदेह'
या तो मेरे सिर पर भी
होता सिर गयंद का,
बन जाता मैं भी
एकदंत गजानन।
या फिर वहाँ ढेर होता
रक्त और मृत शरीरों का।
फ़र्क क्या पड़ता है
कि
सामने कौन है ?
कोई दैत्य है ?
दानव है ?
मानव है ?
या स्वयं भगवान ।
अन्याय करने वाला
हर जीव पापी है।
मैं जानता हूंँ 'माँ'
तेरी पीड़ा...
बार-बार अग्नि-परीक्षा
का दंश।
मुझसे सहा नहीं जाता,
यूँ राम बनकर होने देना अन्याय।
मैं भीष्म नहीं,
जो अपने ही सामने
अपने ही घर की इज़्ज़त,
संसार की शोभा..स्त्री,
को होने दे अपमानित।
मैं सह नहीं सकता था 'माँ'।
माँ तेरी सहनशक्ति
अद्भुत थी।
कितना सहा तूने,
तूने तो स्त्री को
उस उच्च शिखर पर
बैठा दिया कि
अब वह स्वयं
चाहे भी तो
गिर नहीं सकती।
सदा-सर्वदा के लिए
सम्मानित हो गई है वो।
'माँ' जानकी
मुझे रुला ही देती है,
बात तेरे अपमान की।
आखिर क्यों नहीं किया
तूने विरोध
अग्नि-परीक्षा का ?
क्यों तू सब सहती रही ?
क्यों मानी राम ने भी
एक मूढ़ प्राणी की बात ?
क्यों ना दिखी उन्हें
पवित्र वैदेही ?
क्यों किया ये अधर्म ?
पर मेरे राम की भी
विवशता रही होगी मात,
किंतु तेरा पुत्र विवश नहीं है।
यह कफ़न के साथ ही
पैदा हुआ है।
यूँ किसी भी स्त्री की
अस्मिता से
कोई-भी
कभी-भी
ना कर सकेगा खिलवाड़,
जब तक ज़िंदा है
तेरा सुपुत्र 'माँ'।
माँ आशीर्वाद।
