मैं प्रज्ञा हूँ। मुंबई में रहती हूँ। स्वयं को हिंदी में व्यक्त करना पसंद करती हूं। जो महसूस करती हूँ उसपर कवितायें लिखती हूँ। वर्तमान में बतौर क्वालिटी निरीक्षक एक सूचना प्रौद्योगिकी संस्थान में कार्यरत हूँ।
क्या कुछ और कागज़ ज़ाया किया जाए चलो अब नाँव बनाई जाए। क्या कुछ और कागज़ ज़ाया किया जाए चलो अब नाँव बनाई जाए।
'पूरी किताब लिख डालूँ, किसी मोड़ पे तो मिलोगे, मुझसे ऐसे जैसे, मैं मिलती हूँ, अपने सपनों से।' एक प्या... 'पूरी किताब लिख डालूँ, किसी मोड़ पे तो मिलोगे, मुझसे ऐसे जैसे, मैं मिलती हूँ, अपन...
आँखों से टपक गई तुम्हें पास न पाने की धक आँखों से टपक गई तुम्हें पास न पाने की धक
हैं जितने पेड़ पहाड़ों पर उतनी अंगड़ाई रोज़ भरो जीवन तुम इत्मीनान धरो।। हैं जितने पेड़ पहाड़ों पर उतनी अंगड़ाई रोज़ भरो जीवन तुम इत्मीनान धरो।।
व्यथा व्यथा
हद दिखलाने वालों को, हर रोज़ मुँह की खानी है...! हद दिखलाने वालों को, हर रोज़ मुँह की खानी है...!