स्नान
स्नान
हमारी दिनचर्या में अनचाहे घर कर गई
स्थायी हड़बड़ी अब
हमें न तो ठीक से खाने देती है
और न ही ठीक से नहाने
नींद से जागने और दफ्तर को भागने
के बीच की ज़रूरी कड़ी यह,
पर हमारी घड़ी में
ज़रूरत से भी कम समय
मुकर्रर इसके लिए
इसे विडंबना ही कहिए
कि अपने सपनों का घर सँवारते समय
हम रसोई और स्नानघर की बारीकियों पर
देते सबसे ज्यादा ध्यान
इन्हीं पर हमारी कमाई का
एक बड़ा हिस्सा होता कुर्बान
पर हम न तो ध्यानस्थ होकर
भोजन ही कर पाते हैं
और न ही मगन होकर स्नान...
अक्सर आखिरी सूत तक ऐंठ दी गई टोंटी से
तमतमाकर गिरते पानी की भारी-भरकम धार
नीचे रखी बाल्टी की चमड़ी छील देती है
औेर उसमें औंधा पड़ा मग प्लास्टिक का
उफनते भँवर में फँसा कराहता रहता है
बाज की तरह झपट्टा मारता हमारा हाथ
उसे कभी उबारता, कभी डुबाता
सिर से पैर तक बिन रूके उड़ेलता है पानी
पानी की छुअन से
घड़ी भर को थिरकता नहीं बदन कि
उसे दबोच लेता है खूँटी पर टँगा तौलिया
बाहर से धुला-पुँछा पर अंदर से बौखलाया बदन
तरसता रह जाता है पानी से संगत निभाने को
पानी भी तड़पता रह जाता है
बदन छूने को, सहलाने को
मल-मल के प्यार से नहलाने को...
बरस बीते कई,
बारिश की झमाझम बौछार में
छप-छप पाँव छपकाते
पूरा बदन चप-चप भिगाये हुये
बिन बंदिश, बिन ताल
बारिश की बूँदों संग
अपना तन-मन थिरकाये हुए
बरस बीते कई,
किसी नदी-पोखर-ताल-तलैये में
जै गंगा मईया कहते
डुब्ब से डुबकी लगाये हुए
बरस बीते कई,
कुएँ की मुंडेर पर
हर-हर महादेव, हर-हर गंगे का नाद करते
कुएँ के टटके जल से
लोटा-लोटा अपादमस्तक नहाये हुए...
बदन पर पानी उड़ेलता मग प्लास्टिक का
वह अनुभूति नहीं दे पाता
जो अनुभूति दे जाता है
काँसे, पीतल या स्टील का लोटा
अपनी गर्दन की गोलाई से
जल ढुलकाते हुए
जो सुख मिलता है थामने में लोटे को
वह सुख नहीं मिल पाता पकड़ने में
प्लास्टिक के मग को
हमारी हथेली, हमारी उँगलियाँ
बखूबी महसूस करती हैं
थामने और पकड़ने के फ़र्क को...
लोटे की गर्दन की गोलाई से
हौले-हौले ढुलककर गिरते जल की धार
पतली-मुलायम-अर्धचंद्राकार
जिस तरह करती है जलाभिषेक
हमारे मस्तक का
वह कला प्लास्टिक के मग की चोंच में कहाँ?
लोटे से यूँ जल ढारते हुए माथे पर
नित्य स्वयं ही स्वयं का जलाभिषेक करने
और घंटों महँगे स्पा में लेटकर ललाट पर
बूँद-बूँद द्रव टपकाने में नहीं कोई फ़र्क ज्यादा!
माना, अधुनातन जीवन-शैली में
स्नान के भी कई प्रकार हैं, मसलन सन-बाथ, स्टीम-बाथ,
ऑयल-बाथ, मड-बाथ वगैरह-वगैरह
जिन्हें धूप-स्नान, भाप-स्नान, तैल-स्नान, पंक-स्नान
वगैरह-वगैरह कह देने से
उनमें अभीष्ट आधुनिकता का प्रताप
अवश्य ही कम जाएगा
माना, अधुनातन जीवन-शैली में
नहाने के भी ढंग कई हैं,
जैसे बाथ-टब में लेटकर, स्वीमिंग-पूल में तैरकर,
झरने से, पिचकारी से, फव्वारे से वगैरह-वगैरह
पर नहाने की सबसे पुरानी पद्धति वह
सबसे अनूठी अब भी
जिसमें किसी घाट पर सबसे पहले
उतरते हैं पाँव पानी में
जल-देवता को हाथ जोड़कर,
फिर घुटनों, जाँघों को घेरते हुए हौले-हौले
कमर को घेरता है पानी,
फिर धीरे-धीरे पेट-पीठ-छाती को
और आखिर में उँगलियों से नाक चिपटाए
हम समा देते हैं सर्वांग पानी में-
पूजा-ध्यान की पूर्व-मुद्रा यह
जल्दबाजी की नहीं, इतमीनान की आकांक्षी!
तन के रोम-रोम ही नहीं,
मन के पोर-पोर खोलता
यह जल-स्नान
केवल देह को ही नहीं माँजता,
मन-प्राण को भी खिलाता
कमल की भाँति!
स्नान केवल एक नित्य-क्रिया भर नहीं
धूल-पसीने-उमस-गर्मी से
शरीर को निजात दिलाने का,
यह केवल जल-क्रीड़ा नहीं,
यह केवल जल-व्यायाम नहीं,
यह तो लघुतम मार्ग है जलावृत होकर
कुछ क्षण के लिए ही सही, आत्मस्थ हो जाने का,
मन-प्राण-देह-आत्मा को एक लय में लाने का!
स्नान की महत्ता तो इस कथा से भी प्रकट
कि जगत के पालनहार महादेव ने
वृषभ से संदेश भिजवाया मनुष्य को-
सातों दिन नहाना, एक दिन खाना
पर वृषभ बाँच आए उल्टा-
सातों दिन खाना, एक दिन नहाना!
क्रोध में महादेव ने तत्क्षण वृषभ को दिया आदेश-
जाओ, हल चलाओ, अन्न उगाओ अतिरिक्त
और पालो मनुष्य को,
अन्नदात्री धरती का काम करो आसान
तब से बैल जोत रहे खेत
तब से ही बैलों की पूँछ थामे हुए हैं किसान!
जैसे क्रोध को पी जाता है पानी
वैसे ही देह की थकान, मन की उदासी को
मिट्टी की तरह सोख लेता है स्नान
एकदम ऊपर तक उठे हाथ से
एकदम धीरे-धीरे जब गिरती है जल की
एकदम पतली, कोमल धार
माथे पर, ललाट पर, भौंहों पर,
आँखों पर, गालों पर, होंठों पर
और शनै:-शनै: ढुलकता-छहलता जल
जब उतरता है पेट-पीठ-छाती होते हुए
पाँवों के अँगूठों तक
तो धुल जाती है मन पर जमी
उदासी और अवसाद की काई,
क्रोध-क्षोभ-आवेश में जलता तन-मन
एकदम शांत, एकदम निर्विकार हो जाता है
स्वयं ही स्वयं का
जलाभिषेक करते हुए इस तरह
हम लौट आते हैं अपने अंदर,
राह भटक कर भी...।