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Rishabh Goel

Others Romance

3  

Rishabh Goel

Others Romance

इश्क का खुमार

इश्क का खुमार

3 mins
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आज कल एक सुर्ख मदहोशी सी हवाओं में है,
बिन पिये ही झूमते हैं हम ऐसा नशा उसकी अदाओं में है।
जानते तो थे पहले से थे उसे, साथ में ही पढ़ती थी,
कभी सोचा ना था उसके बारे में, बस हाय-हेल्लो हुआ करती थी।
फिर उस दिन अचानक सब बदल सा गया,
उस बरसात में हर मंज़र हर पल थम सा गया।
जब बरसात की धुंधली शाम में देखा था उसे,
छाते को संभालती, उलझी बिखरी ज़ुल्फो को सवारती,
बूंदों से ज़्यादा टिप-टिप करती अपनी आँखों से
आसमां को गुस्से से निहारती,
उस दिन उसकी एक झलक पाने के लिये हम वो आसमां बनने को बेकरार थे,
उसके ऊपर बूंदे बरसाने को हम ऊम्र भर रोने को तैयार थे।
उस रात पहली बार चाँद से नज़र नहीं हट रही थी
नींद का नामोनिशां नहीं और सोना दुशवार हो गया,
नीरस बेरंग सी वो कमरे की छत भी अब
सुंदर लग लग रही थी
तब हमने जाना की हमे प्यार हो गया।
हमारी ज़िन्दगी में तो पहले ही हो चुकी थी, सारे जग की सुबह होने का इंतज़ार कर रहे थे,
बंद आँखों से तो सारी रात करते रहे,
खुली आँखों से हो दीदार यही कामना बार बार कर रहे थे।
इसे किस्मत का ज़ोर कहो या भगवान का इशारा,
जैसे ही घर से निकले कुछ ही दूर पर पूरा हुआ हर सपना हमारा ।
जैसे सही राह को पाकर भटके एक मुसाफिर को होती है,
तपती धूप में छाया पाकर जितनी एक काफ़िर को होती है,
उतनी ही ख़ुशी हमे हुई जब सड़क किनारे खड़े उसे देखा,
धानी सरसों सी वो खिलखिला रही थी,
सहेली से बातें कर रही थी, मंद मंद मुसकुरा रही थी ।
सोचा, जो मन में है, दिल में है, वो सारी बातें उससे जाके बोल दूँ,
रात बैठ कर जो बुने धागे प्रेम के, सारे जाकर उसके सामने खोल दूँ ।
क्या सोचेगी वो, क्या कहेगी?
हाँ कहकर गले लगाएगी या ना कहकर धमकाएगी?
खुद से ही हज़ार सवाल कर रहे थे,
जिसे अभी तक पाया भी ना था, उसे खोने से डर रहे थे।
आज तक दोस्तों के सामने झूठी शान में जीते थे,
किसी को कुछ भी कहते, तूफ़ान से उड़ते थे।
दिल की धड़कन की रफ़्तार क्या होती है उस दिन हमने जाना,
असली डर का एहसास हुआ, जो अब तक था अंजाना।
फिर भी हिम्मत करके उसके पास गए,
क्या बोले? कैसे बोले? सारे अल्फाज़ गले में अटक गए।
हमारी ये हालत देखकर वो कुछ घबराई,
नज़रे झुका कर मुस्कुराई,
पलके झुका कर  शरमाई।
जो अब तक हमने कहा भी ना था, शायद उसको चल गया था पता
हम परेशां थे, लाखो शब्द कहना चाहते थे, पर एक अक्षर भी मुह से निकलने की न कर रहा था खता।
लफ्ज़ो में ना सही, आँखों  से सब कुछ कह चुके थे,
आँखों को पढना आता था उसे , ये उसकी आँखों में हम पढ़ चुके थे।
शायद अब इकरार इज़हार की ज़रूरत ही न थी,
अब बस हम थे, वो थी और न कोई कमी थी ।
समय का हर कण रुक सा गया, उस लम्हे का हर पल सहसा थम सा गया,
ऐसा लगा अब हर लफ्ज़, हर अल्फाज़ झूठा है,
इस पल के हर एहसास में ख़ुशी है, बाकी हर जज़्बात रूठा है।
न वो कुछ बोली और न मैं कुछ  कह पाया,
ये इश्क का खुमार है, बस आँखों ही आँखों में हो गया बयां।

 


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