बीड़ी
बीड़ी
बीड़ी जब पीते हुऐ
देखता किसी को तो
पिता मेरी स्मृति में
बालक छाप
बीड़ी का बण्डल लेने
पैदल ही पास की दुकान से
या दूर के बाजार से
साईकिल पर जाता था
और बीड़ी का बण्डल
पिता को देते हुऐ
लगता था जैसे
मैंने पिता का कोई
बड़ा काम कर दिया
देखता जब उस समय
उनके चेहरे पर
प्रसन्नता की रेखा बड़ी
प्रोफेसर थे पिता
डिग्री काॅलेज में
जन्म जब हुआ मेरा
बाद में वे अफसर बने
लेकिन उनकी अफसरी का
अथवा प्रोफेसरी का
क्या सम्बन्ध बीड़ी से
मेरी समझ में
नहीं आया यह आज तक!
मात्र लुंगी पहने,
नंगे पाँव, नंगे बदन,
डाले कन्धे पर जनेऊ
जिस तरह से वे
घर से बाहर निकल
टहलते रहते
भेंट भी कर लेते
मिलनेवाले
अड़ोस-पड़ोस के लोगों से
अथवा
बड़े-बड़े धनपशुओं से भी
मिलने जो आते कार में बैठकर उनसे
-अपने मुकदमों के सिलसिले में-
तो भी बिना लिये
मन में कुण्ठा कोई
पीते हुए बीड़ी
बात करते हुऐ
धुआँ फेंकते उनके चेहरे पर
उनके इस व्यवहार का भी
बीड़ी से कोई आन्तरिक रिश्ता
समझ में नहीं मुझको आता था
उस समय।
हाँ, बीड़ी पीते हुऐ-
श्रमिकों से,
निम्न वर्ग के लोगों से,
मुसलमानों से,
सिक्खों से, ईसाइयों से भी
जिस तरह वे सहज भाव से उतर
उन्हीं के धरातल पर करते थे बातचीत
उसमें तो अवश्य
उनकी बीड़ी का हाथ मुझे लगता।
बीड़ी की चिनगारी से मैंने
बड़ी-बड़ी फैक्ट्रियों को
आलीशान महलनुमा बँगलों को
धू-धूकर जलते हुऐ देखा
अपने शहर कानपुर में
इन्हीं आँखों!
बीड़ी पीते देखता हूँ
अब भी जब किसी को तो
एक परम आत्मीय
बरगद की छाँह-सी घनी स्मृति
ले लेती है मुझको
अपने आगोश में
बरसाते हुऐ मेरे ऊपर
अपने आशीष के फल
मीठे,
सुस्वादु।