प्रतिनिधि कविताएँ
प्रतिनिधि कविताएँ
कविता ने तुम्हारा कितना ख़्याल रक्खा है
कि हर एक शब्द को सँभाल रक्खा है
स्वर उठे तो नाज़ बने, व्यंजन उठे तो नखरे
हर वर्तनी को करीने से देख-भाल रक्खा है
हर मिसरे में घुल जाता है लावण्य तुम्हारा
हर्फ़ों में छुपा मतलब क्या कमाल रक्खा है
जो जवाब निकल के आए दिल से तुम्हारे
मैंने खोज-खोज के वही सवाल रक्खा है
क्या अलंकार,क्या रस और क्या श्रृंगार
हुश्न के हर सलीके को निकाल रक्खा है
मुझे संभालो कि मुझे गुमाँ हो गया
मैं किसी चाँद का आसमाँ हो गया
कितना सच्चा है प्यार मेरा देखिए
मैं किसी बच्चे की ज़ुबान हो गया
इश्क़ मेरा जज़बात से महरुम नहीं
मैं किसी बेघर का मकान हो गया
मेरे इश्क़ पे सियासत की छींटें नहीं
मैं होली तो कभी रमज़ान हो गया
मेरा इश्क़ गुज़र चुका है हर दौर से
मैं सदियों से खड़ा हिंदोस्ताँ हो गया
अगर भूख कौम के रास्ते आती है
तो रोटी का भी कोई धर्म बता दो
आप धनाढ्य हैं,आप बच जाएँगे
खेतिहरों का भी कोई साल नर्म बता तो
दिल्ली की बाँहों में हैं सब रंगीन रातें
किसी मल्हारिन का भी चूल्हा गर्म बता दो
बेटियों से ही सब उम्मीद की जाएँगी क्या
देश के संसद में भी बची हुई शर्म बता दो
मन्दिर जाने से ही पाप-पुण्य होता है क्या
फिर आधुनिक बाबाओं का भी कर्म बता दो
कविताएँ जो कह पाती सब की बातें
तो तहखानों में कैद ज्ञान का मर्म बता दो
इस कागज़ी बदन को यकीन है बहुत
दफ्न होने को दो ग़ज़ ज़मीन है बहुत
तुम इंसान हो,तुम चल दोगे यहाँ से
पर लाशों पर रहने वाले मकीं* हैं बहुत
भरोसा तोड़ना कोई कानूनन जुर्म नहीं
इंसानियत कहती है ये संगीन है बहुत
झुग्गी-झोपड़ियों के पैबन्द हैं बहुत लेकिन
रईसों की दिल्ली अब भी रंगीन है बहुत
वो बरगद बूढ़ा था,किसी के काम का नहीं
पर उसके गिरने से गाँव ग़मगीन है बहुत
बस एक हमें ही खबर नहीं होती है
वरना ये देश विकास में लीन है बहुत
जो गीत मैं अपने वतन में गुनगुनाता हूँ
सरहद के पार भी वही गाता है कोई
मैं बादलों के परों पे जो कहानियाँ लिखता हूँ
वो संदली हवा की सरसराहट में सुनाता है कोई
उस पार भी हिजाब की वही चादर है
शाम ढले रुखसार से जो गिराता है कोई
मैं जून की भरी धूप में होली मना लेता हूँ
जब रेत की अबीरें कहीं उड़ाता है कोई
मेरे मन्दिर में आरती की घंटियाँ बज उठती हैं
किसी मस्जिद में अजान ज्यों लगाता है कोई
मुझे यकीं होता है इंसान सरहदों से कहीं बढ़कर है
जब किसी रहीम से राम मिलकर आता है कोई
कुछ और नहीं तो ना सही पर हम देश बदल देंगे
संदेश,आदेश,अध्यादेश और स्वदेश बदल देंगे
धुन सवार है इतिहास नई लिखने की अब ऐसी
कि जो भी बचा हुआ है वो सब अवशेष बदल देंगे
अपनी ही मूर्तियाँ और अपने मन्दिर बनवाएंगे
वेदों और पुराणों से ब्रह्मा,विष्णु,महेश बदल देंगे
जो सहूलियत है हमारी मानसिकता को बचेगी
नहीं तो हम बापू का भी पूरा भेष बदल देंगे
ज्यों-ज्यों उम्र गुजरती जाती है
दिल्ली भी बदनाम हुई जाती है
मुगलों, तुर्कों से तो बचा लिया
अपनों से अब परेशां हुई जाती है
सत्ता व विलास से मोह नहीं जाता
बस जिंदों की श्मशान हुई जाती है
काला साया पनप रहा मुँडेरों पर
बेकदरी में गुमनाम हुई जाती है
अरमान पसारे तो कम पड़ती है
2"2 का जैसे मकाँ हुई जाती है
संसद की दासी है या है रानी तू
क्यों गूँगे सी ज़बाँ हुई जाती है
विद्रोह, प्रदर्शन सब तेरे जेवर थे
दूजे ने पहना तो हैरां हुई जाती है
अपने बच्चों को फुटपाथ देती है
दुनिया के लिए भगवान हुई जाती है
मजलूमों के वास्ते जहरीले आसूँ
रईसों की मुस्कान हुई जाती है
जो है उसी को बचा के रख ले तू
क्यों ख़्वाबों में जापान हुई जाती है।