वृक्ष का दुख
वृक्ष का दुख
एक शहर में एक सेठ रहते थे जिनको सब सेठ हुकुमचंद कहते थे क्योंकि वह सभी को हुक्म देते थे और सब उनका हुक्म मानते भी थे हालांकि वो राजा नहीं थे फिर भी लोग ऐसा इसलिए करते थे क्योंकि उन्होंने कई लोगों की जान भी कई बार बचाई थी। सेठ हुकुमचंद काफी बार लोगों को मुसीबत के समय ऋण देकर भी लोगो की मदद करते थे और वे जो पैसे लोगों को देते थे न उस पर ब्याज लेते और न किसी कै धन लौटाने को कहते फिर भी उनका धन लोग देर-सवेर लौटा ही देते थे। शायद यही कारण था कि वे दिन दुनी रात चौगुनी तरक्की कर रहे थे।
वे सदा लोगों को पेड़ न काटने और उसे बचाने की सलाह देते थे। सेठ हुकुमचंद एक हवेली जैसे घर में रहते थे। वे दो चीजो से बहुत प्यार करते थे और वो दो चीजें थीं खेल और वृक्ष पर अगर उन्हें इन दोनों में से एक चुनना होता तो वे खेल को चुनते क्योंकि खेल उन्हें अधिक प्रिय था।
एक बार सेठ ने एक ज़मीन खरीदी जिस पर वे मैदान बनवाना चाहते थे पर उस ज़मीन के बीचों-बीच एक बहुत घना पेड़ था पर वो पेड़ तीन साल के भीतर सुख जाने वाला था तो यही सोच सेठ जी ने पूरे तीन साल इंतजार किया पर पेड़ नहीं सुखा तो सेठ ने मैदान का ख़्याल छोड़ दिया। उस पेड़ से खुब अनाज होने लगे। अब सेठ जी ने शादी कर ली थी और कुछ समय बाद उनके यहां एक पुत्र ने जन्म लिया जिसका उत्सव मनाया गया और पुत्र का नाम पलाश रखा गया।
पलाश भी पिता की तरह खेल का प्रेमी था पर उसे वृक्ष से लगाव नहीं था। एक बार सेठ और पुत्र दोनों उसी ज़मीन पर पहुंचे जो सेठ ने मैदान बनवाने के लिए खरीदी थी उसनेे पुरी बात पुत्र को बताई और कहा ये पेड़ बहुत उपजाऊ हैं इसे मत काटना।
समय के साथ सेठ जी दुनिया छोड़ चले गए और साथ ही उनकी पत्नी भी। पीछे रह गया तो उनका पुत्र और उनका धन और साथ ही कोई और भी था जो बूढ़ा हो गया था और वह था वो उपजाऊ पेड़ हालांकि पेड़ बूढ़ा तो हो गया था पर उसकी उपज कायम थी। धीरे-धीरे पेड़ की उपज कम हो गई पर पूरी तरह खत्म न हुई। एक दिन पलाश (सेठ का पुत्र) ने उस पेड़ को काटने के लिए अपने नौकर-चाकरो को हुक्म दिया ताकि वह वहां मैदान बना सके और खेल आयोजित कर सकें।
नौकर-चाकर कुल्हाड़ी लेकर पेड़ के पास पहुंचे और पेड़ पर पहला वार करने वाले थे कि जोर से चिल्लाने की और फिर रोने की आवाज आई और ऐसा ही दो चार बार हुआ तो सभी नौकर भूत भूत कर भाग खड़े हुए और जाकर सारी बात मालिक को बताई। मालिक ने सबको डांटा और कहा भूत वूत कुछ नहीं होता पर फिर भी कोई तैयार न हुआ तो मालिक भी उनके साथ गया। इस बार जैसे ही कुल्हाड़ी से वार होने ही वाला था कि फिर जोर से चिल्लाने और रोने की आवाज आई और ऐसा ही तीन चार बार हुआ तो मालिक (पलाश) जोर से बोला:-
पलाश (जोर से) - कौन है, जो ये कर रहा है सामने आओ।
वृक्ष से शांत सर्वर में आवाज आई
वृक्ष (शांत स्वर में) - तुम्हारे सामने ही तो हूं।
पलाश (जोर से) - कहां हो, दिखते क्यो नहीं !
वृक्ष (शांत स्वर में) - मैं वृक्ष बोल रहा हूं जिसके पास तुम खड़े हो।
पलाश (पहले से शांत स्वर में) - क्या चाहते हो? मैं तुम्हें काटकर यहां मैदान बनाऊंगा... वैसे भी तुम कम उपजाऊ रह गए हो तो तुम्हारे होने से करता लाभ ?
वृक्ष ( उसी शांत स्वर में) - पहले मुझे सुन लो फिर तुम चाहो तो मुझे काट देना।
पलाश ( पहले से और शांत स्वर में) - ठीक हैं, बोलो।
वृक्ष (शांत स्वर में बोलता हुआ) - मैं तुम से ज्यादा बड़ा हूं तो तुम्हें कुछ समझाना चाहता हूं, मैं पेड़ हूं बारिश के पानी में मिट्टी को बहने से बचाने के लिए बांध कर रखता हूं। तुम लोगों को प्राण वायु आॅक्सीजन देता हूं, तुम लोगो को अनाज देता हूं, फल देता हूं, कागज भी मुझे काटकर मिलता हैं तुम्हें, थककर मेरी छाया में बैठकर आराम करते हो, मेरी लकड़ियों से घर बनाते हो, मेरी पूजा करते हो, बचपन में मेरी छांव में खेलते हो मुझसे बातें करते हो और बड़े होकर सुख-दुख बांटते हो और मुझे ही काट देते हो। अगर तुम्हें मुझे काटना ही हैं तो पूरा मर जानें दो तब काट लेना कम से कम जीते-जी तो मत काटो मरने के बाद भले ही काट लेना और अब मेरी जिंदगी बची ही कुछ दिन की है।
ये सुनकर पलाश की आंखों में आसूं आ गए और वो छोटे बच्चों की तरह पेड़ से लिपट गया और रोने लगा और पेड़ को न काटने का वादा कर घर लौट गया।