Arunima Thakur

Others

4.8  

Arunima Thakur

Others

वो औरत....

वो औरत....

39 mins
319



आज सोसाइटी में घुसते हैं मेरा स्वागत मेरी चिर परिचित खुशबू ने नहीं किया था बाए हाथ पर मुड़कर देखा तो दरवाजा बंद था शायद कहीं गई होंगी पर उनकी एक्टिवा तो बाहर ही खड़ी थी । चमचमाती ब्रांड न्यू नहीं, पास जाकर देखा तो थोड़ी धूल जमी थी । वैसे मैं दिवाली की छुट्टी मना कर पंद्रह दिन बाद आ रहा हूँ। शायद वह भी कहीं गई होंगी पर कहाँ ? मुझे याद आया अरे मैं तो उन्हें अस्पताल में एडमिट करके गया था तो क्या वो अब तक अस्पताल में ही हैं ? बड़े शहरों की सोसाइटियाँ भी अजीब होती है ना । ना कोई किसी को जानता है ना जानना पसंद करता है ।आसपास इतने सारे लोग सब अपने-अपने काम में व्यस्त। किसी ने भी देखकर मुस्कान भी नहीं दी, ना ही हालचाल पूछा। अपना गाँव, अपना शहर याद आ गया कि स्टेशन से घर तक पहुँचते-पहुँचते, पैर छूते दुआ सलाम करते पौना घंटा निकल जाता है। 


        अरे रुकिए, मैंने अपने बारे में ना कुछ बताया ना ही उनके बारे में | वो आभा और मैं बिहार के छोटे से गाँव सरीखे शहर का पढ़ा लिखा, मेरी यहाँ महाराष्ट्र में नौकरी लगी है । जब पहली बार आया था नौकरी ज्वाइन करने के लिए तभी सहकर्मियों से बात की थी । छोटा शहर था इसलिए दो-तीन दिन तो होटल में निकल गए । पर बाद में इसी सोसाइटी में सेकंड फ्लोर पर एक घर मिल गया था । चलो फिलहाल के लिए ठीक था। पर बाद में बदलना पड़ेगा क्योंकि यह बैंक से बहुत दूर था । सुबह समय से थोड़ा पहले घर से निकलता कि रास्ते में कुछ खाकर, नाश्ता करके पैदल ही बैंक तक जा सकूँ।


          रोज सुबह सोसाइटी से बाहर निकलने से पहले बेला के फूलों की बहुत ही मनभावन खुशबू से मेरा मन प्रफुल्लित हो जाता। यही हाल हर शाम को लौट कर आने पर भी होता। सोसाइटी छोटी सी थी । मेन गेट से अंदर घुसते ही दोनों तरफ बेंच थी। कोई पार्क या स्टिल्ट पार्किंग या बच्चों के खेलने की जगह नहीं थी । वही बेंच पर कुछ बड़ी उम्र की महिलाएँ बैठी रहती और छोटे बच्चे खेलते रहते। एक दो बार बचपन की आदत के अनुसार मुस्कुराने अभिवादन करने की कोशिश की पर कोई प्रतिउत्तर ना पाकर छोटे शहर की यह आदत अपने आप छूट गयी। अंदर घुसते ही मैं उस खुशबू का सोर्स ढूंढने की कोशिश करता पर मुझे आसपास कहीं किसी भी बालकनी में किसी भी घर के बाहर गमलों में बेला का पौधा लगा दिखा नहीं । अक्सर ना चाहते हुए भी नजरें ढूंढने लग जाती यह बेला की इतनी भीनी भीनी खुशबू आ कहाँ से रही है? ऐसे ही एक दिन अंदर घुसते ही जब मुझे बेला की खुशबू आई मैंने खूब जोर से साँस ली। यही खुशबू तो मुझे वापस मेरे घर के आँगन में पहुंचा देती है। जहाँ मेरी माँ ने बहुत प्यार से बेला की खूब बड़ी बेल लगा रखी है । 


    आँख खोलकर रोज की आदत के अनुसार इधर उधर देखा कि खुशबू कहाँ से आ रही है ? बाएँ हाथ के फ्लैट में एक अधेड़ उम्र की महिला खड़ी थी । वह कुछ बोल रही थी । क्या मुझसे ? पता नहीं ? मैं तो उन्हें जानता भी नहीं । वह भी मुझे नहीं जानती है । मैंने अपरिचित अनजान निगाहों से उनकी ओर देखा और चारों तरफ नजर दौड़ाई कि वह किस से बात कर रही है । किसी को भी ना पाकर मैंने फिर उनकी ओर देखा तो उन्होंने हाथ के इशारे से मुझे बुलाया। मैं उनकी ओर गया उन्होंने मुझसे फिर कुछ कहा शायद मराठी भाषा में। मैं कुछ समझ नहीं पाया । मैंने बोला, "मुझे आपकी भाषा नहीं आती है"। तब उन्होंने पास में लगे तुलसी के पौधे में दिए और अगरबत्ती की ओर इशारा करते हुए कहा, "तुम रोज देखते हो ना की मोगरा की महक कहाँ से आ रही है, वह यहाँ से आती है । क्या तुम्हें मोगरा से एलर्जी है ? मैंने कहा, "नहीं नहीं मुझे तो बेला बहुत पसंद है । यह खुशबू ही तो मुझे इस अनजानी जगह, अनजाने लोगों के बीच में अपनेपन का एहसास देती है । 

      

     फिर मैं उसी जगह खड़े होकर उनसे बातें करने लगा। मुझे मराठी नहीं आती थी पर उन्हें आभा को हिंदी अच्छे से आती थी । उनसे बातें करके अच्छा लगा । परदेस में कोई तो मिला, दोस्त ना सही, हमदर्द ना सही, पर हाल-चाल भी पूछा तो अच्छा लगा। मैं उनके कद काठी रूप रंग के बारे में कुछ नहीं कहूँगा क्योंकि उनकी ओर मुझे उनकी बातों ने आकर्षित किया । अकेलापन ही अकेलेपन का साथी होता है । शायद वह भी बहुत अकेली थी। चलिए बता ही देता हूँ , वह थोड़े भरे शरीर की, शक्ल सूरत से अच्छी, मध्यम वर्ग की महिला थी। कभी शायद बहुत खूबसूरत रहीं होंगी पर वक्त के थपेड़ों के निशान उनके चेहरे पर दिखते थे। उनकी मुस्कुराहट में भी एक लाचारगी थी। उन की मुस्कान में ना ममत्व की भावना थी ना हीं प्रेम की । उनको देख कर पहली बार मे यहीं लगता था कि वह बस जीने के लिए जी रही है । फिर भी मुझे उनका साथ अच्छा लगा । 


          अब तो अक्सर आते वक्त शाम को थोड़ी देर खड़े होकर हम बातें करते। बातें भी क्या ? दैनिक दिनचर्या के बारे में, कि खाना कहाँ खाता हूँ ? नाश्ता कहाँ करता हूँ ? माँ साथ नहीं है तो बर्तन धोने पड़ते हैं घर के सब काम भी। पहले कभी यह सब किया नहीं, यही सब । अभी तक कभी भी उन्होंने मुझे अपने घर आने के लिए या मैंने उन्हेंअपने घर पर आने का आमंत्रण नहीं दिया था । एक दिन वह बोली कामवाली भी नहीं रखी है घर की साफ सफाई करते हो या नहीं ? मैंने बोला हॉं करता हूँ ना । शनिवार इतवार को जब समय मिलता है तो कर लेता हूँ। खाना मैं भले ही नहीं बना पाता पर गंदगी में रहना अच्छा नहीं लगता तो साफ सफाई तो करनी ही पड़ती है । 



वह बोली अच्छा फिर ऐसा करना, इस रविवार जब साफ सफाई कर लेना तो सुबह का नाश्ता या दोपहर का खाना जो भी समझो मेरे साथ खा लेना I


मैंने कहा आप क्यों तकलीफ करती हैं ? 


उन्होंने बोला, तकलीफ की कोई बात नहीं। मैं अपने लिए बनाऊँगी ही, दो रोटी तुम्हारे लिए भी सेक दूंगी ।


मैंने मजाक में कहा, आपको दो रोटी से ज्यादा सेंकनी पड़ेगी। 


 वह हँसी. . . शायद पहली बार मैंने उनको खिलखिला कर हँसते हुए देखा। शायद पत्थर हो चुकी संवेदनाएं जीवित होने लगी थी। 


--------


          जिस प्रकार हर सिक्के के दो पहलू होते हैं ।उसी प्रकार जो बात अभिशाप है वह किसी के लिए वरदान भी साबित होती है। शहरों में एक अच्छी बात यह भी है कि कोई किसी से मतलब नहीं रखता । तो मेरा उनके घर आना जाना, छोटे कस्बाई शहरों की तरह अभी तक कानाफूसी का कारण नहीं बना था। अब अक्सर वह मुझे छुट्टियों मे खाने पर बुला लेती या रात को मैं बाहर से कुछ लेकर उनके घर पर ले जाता और हम दोनों साथ में खा लेते। जो भी हो सच कहूँगा, मैं यह कह कर कि उनमें मुझे अपनी माँ का स्वरूप दिखता था, मैं ना उनकी ना मेरी भावनाओं का अपमान नहीं करुँगा । हमारे बीच में सिर्फ एक अकेलेपन का, दोस्ती का रिश्ता था । जिसकी अपनी मर्यादा थी । पर हाँ अब अक्सर शनिवार इतवार को हम बाहर घूमने चले जाते, मंदिर, फिल्म, नाटक, समुद्र के किनारे, पहाड़ों पर, कहीं पर भी । उनके पास अतीत की बहुत सारी बातें थी । वह बताती रहती मैं सुनता रहता। 


      उनकी इन्हीं बातों से मुझे उनके बारे में थोड़ा थोड़ा पता चला कि शादी के ढ़ाई साल बाद ही उनके पति की डेंगू से मौत हो गई थी । कोई बच्चा भी नहीं है। वह बहुत ही अमीर परिवार की बहू हैं। पति की मृत्यु के बाद भी सब ठीक ही जा रहा था । उम्र कम थी। सास ससुर ने दूसरी शादी की पेशकश भी की पर मायके वाले (उन्हें सही कहूँ या गलत यह तो वह भी कभी समझ नहीं पाई) बोले, शादी मत करना । दूसरी शादी करोगी तो यह सब जायदाद तुम्हें छोड़नी पड़ेगी । फिर तुम्हें इसमें कुछ भी हिस्सा नहीं मिलेगा। यह लोग तो चाहते ही हैं कि तुम्हारी शादी हो जाए तो तुम्हारे पति के नाम की सॉरी जमीन जायदाद उनके नाम हो जाएँ। संयुक्त परिवार में वास्तव में तो पति के नाम पर कुछ भी नहीं था पर फिर भी उनके पति एक होटल चलाते थे । मायके वाले चाहते थे वह होटल अब उनके नाम पर हो जाए। ससुराल वाले इस बात के लिए तैयार नहीं थे । उनका कहना था यह परिवार का व्यवसाय है किसी एक के नाम पर नहीं लिख सकते। तुम्हें संभालना हो तो तुम संभालो जैसे पहले शिरीष (उनके पति) संभालता था।

   

       खैर वह आधी बातें बताती आधी में यादों में खो जाती। मैं उन्हें खोद खोदकर पूछ भी नहीं पाता। कभी उन्हें लगता शायद उनके ससुराल वाले सहीं थे पर मायके वाले भी गलत कैसे हो सकते हैं ? वह तो हमेशा उनका भला ही चाहेंगे। वह अपनी कशमकश में डूबती उतराती। वह अपने मन को दिलासा देती कि वर्षों पहले लिया गया निर्णय सही था। उनके शब्दों में वैसे भी विधवा को दूसरी शादी के बाद भी सुकून की जिन्दगी मिलें जरुरी तो नहीं। कम से कम मैं आज की तरह आजाद जिन्दगी नहीं जी पाती। कोई किचकिच खिचखिच नहीं। मज़ा नी लाइफ ।


        पर उनकी बातों से आती खालीपन की, उदासी की तरंगों को कोई भी महसूस कर सकता था। क्या उन्हाेंने कोई आवरण ओढ़ रखा था या उन्हें एक आवारण ओढ़ा दिया गया था। मैं सोचता शायद आज के लगभग तीस साल पहले के समाज में ऐसा ही होता होगा। यहीं उनके परिवार वालों को सही लगा होगा। 


     बाद में मायके वालों के कहने पर उन्होंने ससुराल का घर भी छोड़ दिया कि वहाँ तुम्हें सबका काम करना पड़ता है (वह खुद ही कहती इतना बड़ा घर था इतने नौकर क्या काम करना पड़ता था वहाँ मुझे ? कुछ नहीं उलटे अब सब करना पड़ता हैं) । मायके वाले चाहते थे घर का एक हिस्सा मुझे मिलें। घर के हिस्से ना हो इसके लिए उनके ससुर ने उनको एक फ्लैट ले कर दिया कि भाई तुमको अकेले रहना है तो तुम अकेले ही रहो । पर मायकें वालों का कहना था कि इतने बड़े घर के एक हिस्से की कीमत बस एक फ्लैट ? उन लोगों ने आभा को ससुराल वालों को कानून की धमकी देने की सलाह दी। तब उनके ससुर ने एक फ्लैट और ले कर दिया कि ठीक है यह फ्लैट भी तुम रखो और इसको किराए पर चढ़ा दो जो भी पैसे आएंगे उससे तुम्हारी गुजर बसर हो जाएगी।


       वह कहती, उनका मन तो था मायके में जाकर रहने का। पर भाई बहन के समझाने पर कि अगर उन्होंने यह शहर छोड़ दिया तो उनका हक मारा जाएगा । वह हक़ जिसे देने को उनके ससुराल वाले तैयार नहीं थे और छोड़ने के लिए मायके वाले। उनका कहना था अभी कुछ दिनों पहले ससुराल वालों ने होटल के बदले कुछ पैसे देने की पेशकश की थी । पर उनके भाइयों बहनों का कहना था कि नहीं होटल पर उनका अधिकार है तो उनको होटल ही मिलना चाहिए तो उन्होंने पैसे लेने की पेशकश ठुकरा दी थी। मैं उनकी बातें सुनता और बस मन में सोचता कि क्या उनके मन में अपने ससुराल वालों के प्रति छोभ है या मायके वालों के प्रति । क्या पैसा इतना जरूरी होता है कि मायके वालों ने उनकी जिंदगी सवाँरने की जगह तबाह कर दी या वे आभा की जिन्दगी, भविष्य सुरक्षित करना चाहते थे? 


    खैर यह मेरी सोच थी। मैंने कभी उनसे इस बारे में बात नहीं की। मैं सिर्फ सुनता था। शायद उनको भी बहुत सालों बाद कोई ऐसा मिला था जो उनकी बातें सुनता था। 


××××××××××××××××


       एक दिन शाम को जब मैं ऑफिस से घर आया तो वह अपने घर के बाहर मिठाई का डिब्बा लेकर वहाँ बैठी महिलाओं को और बच्चों को मिठाई बाँट रहीं थीं। मैंने भी जाकर हाथ फैला दिये। मुझे भी खिलाइए, कौन सी खुशखबरी है कि आज मिठाई बाँटी जा रही है। उनकी आँखों में एक अलग ही चमक थी । उन्होंने घर के आगे खड़ी हुई एक्टिवा की ओर इशारा करके बोला, देखो मैंने गाड़ी ली । 


पर आपको चलानी आती है ? मैंने पुछा


हमेशा की तरह थोड़ा वर्तमान में थोड़ा यादों में डूबते हुए उन्होंने कहा, हाँ पहले आती थी । शादी से पहले सहेलियों की और शादी के बाद पति की गाड़ी चलाती थी।


तो इतने सालों से कभी गाड़ी खरीदने का ख्याल क्यों नहीं आया ? 


उन्होंने कंधे उचकाते हुए जवाब दिया, भूल गई थी। 


 मैं उन्हें देख मेरे मन में सोच रहा था भूल तो तुम जीना भी गई हो । काश तुम्हें वह भी याद आ जाए। वर्तमान में मैंने बोला, चलो फिर मुझे घुमा कर लाओ । 


वह हँसी और बोली, "नहीं पहले शनिवार को तुम मुझे लेकर दरिया पर चलना । वहाँ पर जाकर थोड़ी प्रैक्टिस करूँगी कि याद भी है कि चलाना भूल गई" । 


मैंने कहा, "उसके लिए शनिवार का इंतजार क्यों करना ? अभी कर लेते हैं । तुम चलाओ, मैं पीछे बैठा हूँ"।  


उनकी आँखों में बच्चों सी चमक आ गई । क्या सच ! अगर मैंने कहीं एक्सीडेंट कर दिया तो? 


मैंने कहा, "कोई बात नहीं । मैं हूँ ना, मैं संभाल लूंगा"। 


वह बोलीं, "नहीं नहीं रहने दो ! तुम ऑफिस से थक कर आए हो । 


"अरे चलो ना तुम भी क्या फॉर्मेलिटी करती हो" और मैं उनके पीछे बैठकर उनके साथ दरिया पर निकल गया I


     सप्ताह के बीच का दिन होने के कारण दरिया पर बिल्कुल भी भीड़ नहीं थी । सूर्य लगभग अस्त हो चुका था, हल्का उजाला था। मैंने कहा, "जाओ जाकर प्रैक्टिस कर लो" I


उन्होंने मेरी ओर प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा ।


मैंने कहा, "अभी तो मैं पीछे बैठकर ही आया हूँ ना । मुझे मालूम है तुम चला लोगी। जाओ कोशिश तो करो, नहीं गिरोगी।


 उन्होंने हँसते हुए कहा, "ना बाबा ! तुम पीछे बैठो । गिरने लगी तो कम से कम पैर तो लगा लोगे नहीं तो बुढ़ापे में हड्डी जुड़ती भी नहीं है" ।


 दो बार उन्होंने मुझे बिठाकर चक्कर मारा। उसके बाद उनको आत्मविश्वास आ गया। फिर कुछ चक्कर खुद से अकेले लगाएं । कितनी खुश नजर आ रही थी I 


मैंने कहा, "आज कुछ ज्यादा ही खुश लग रही हो" । 


वह बोली, "जीवन में पहली बार खुद से कोई फैसला लिया है"।  


मैंने कहा,"यह तो बहुत खुशी की बात है। अब आगे भी तुम्हारे जीवन के फैसले तुम खुद ही लेना"।


वह बोली, "हम उस जमाने के हैं, जब लड़कियों को फैसले लेना नहीं सिखाया जाता था । बाहर जाने के लिए भी अपने से दस साल छोटे भाई की उंगली पकड़ कर जाना पड़ता था। हम मानसिक रूप से पूरी तरह से परिवार वालों पर निर्भर रहते थे"।  


पर अब तुम छोटी बच्ची नहीं हो । अब तो अपने फैसले खुद ले सकती हो ना । बुरा मत मानना पर बहुत बार पूछना चाहा, तुमने शादी क्यों नहीं की ? अगर तुम अपने पति को इतना चाहती थी तो कभी उनकी बातें क्यों नहीं करती हो ? 


एक्टिवा वहीं पर खड़ी करके हम दोनों किनारों पर बनी सीढ़ियों पर बैठ गए । मैंने दोबारा से प्रश्न नहीं पूछा । मैंने उनको मौका दिया, सोचने का, बोलने का । 


थोड़ी देर बाद उनकी आवाज कहीं गहरे कुएं से आती सुनाई पड़ रही थी। तुम अभी बहुत छोटे हो, जब मेरी शादी हुई तब मैं भी बहुत छोटी थी सिर्फ सत्रह साल की नासमझ उमर, ढाई साल की वैवाहिक जिंदगी वह भी संयुक्त परिवार में, मेरे पास ऐसी कोई याद ही नहीं है। अब तो इतने साल हो गए हैं कि शिरीष का चेहरा भी याद नहीं आता है"। 


 "फिर शादी क्यों नहीं की ? इतनी लंबी जिंदगी अकेले काटना कितना मुश्किल होता है", मैंने कहा।


 कहाँ रे ! कहाँ की लंबी जिंदगी ! कट गई, अब बची ही कितनी है । 


तुम कब तक अपने आप को धोखा देती रहोगी ? कब तक अपने आप से झूठ बोलती रहोगी ? कभी तो अपने मन की सुनो । 


हाँ तू बड़ा आया है मेरे मन की सुनाने वाला । चल तुझसे ही शादी कर लेती हूँ। 


 मैंने हंसते हुए बोला, हाँ तो हर्ज क्या है !


 मेरी पीठ पर मारते हुए वह बोली, "हॉं! और तू पहुँच जाना अपनी माँ के सामने ,उनकी उम्र से भी बड़ी बहू लेकर के"।  


मैंने कहा, "हॉं यह अच्छा रहेगा । फिर सास बहू की लड़ाई नहीं होगी। माँ को बहू की इज्जत करनी पड़ेगी" । 


"चल चल तू और तेरी बातें" उन्होंने उठते हुए बोला। 


 मैंने उनका हाथ पकड़ कर बोला पर सच में, अब इस बात को मजाक में मत उड़ाना। अगर तुम बोलो तो मैं अपने आसपास अखबार और इंटरनेट पर ढूँढ कर देखता हूँ, कोई ना कोई तो मिलेगा । 


वह बोल रहीं थी, "नहीं रहने दो। कुछ खुशियाँ मेरे नसीब में ही नहीं हैं"।


 "ऐसे कैसे तुमने सोच लिया ? नसीब बदल भी सकते हैं"। मैने एक्टिवा पर उनके पीछे बैठते हुए बोला। 


एक गहरी साँस भरकर एक्टिवा स्टार्ट करते हुए उन्होंने कहा, "हाँ सोचा था, कोशिश भी की थी। चलो अभी घर चलते हैं यह कहानी कभी बाद में सुनाऊँगी"। 


 मैं एक्टिवा पर उनके के पीछे बैठा सोच रहा था इस छोटे से दिल ने कितने जख्म खायें है। 


×××××××××××××××××××


मैं अपनी बैंक की इस नौकरी से संतुष्ट नहीं था। मैं अक्सर नौकरी के लिए आवेदन करता रहता था । पर मुझे डर था कि अगर मुझे कोई अच्छी नौकरी मिल गई और मुझे यहाँ से जाना पड़ा तो शायद उन्हें दुख होगा। शायद उन्हें दुख: ना भी हो पर मैं उनको ऐसे अकेले छोड़कर नहीं जाना चाहता था । मैं चाहता था कि काश कोई तो मिल जाए जो इनके जीवन को खुशियों से भर दे । पर उस दिन जब उन्होंने ऐसा कहा तो मेरे मन में जिज्ञासा उठी कि आखिर ऐसा क्या हुआ होगा । ज्यादा पूछताछ करने का मेरा स्वभाव नहीं है। फिर भी मुझे लगा, नहीं, एक बार तो इस बारे में बात करनी ही पड़ेगी और यह मौका मुझे बहुत जल्द ही मिल गया। 



    थोड़ा कुरेदने पर मानो लगा वह खुद से ही इस घाँव को इस टीस को खोल कर बहा देना चाहती थी। उनके ही शब्दों में, "जब मैंने अकेले रहना शुरू किया तो मेरा समय काटे ही नहीं कटता था । ऊपर से पैसे के लिए भी मैं किसी के सामने हाथ फैलाना नहीं चाहती थी । वैसे तो ससुर जी कह रहे थे कि होटल में आकर काम संभाल लो । पर होटल का काम सभांलना मेरे बस का नहीं था । मुझे कंप्यूटर आता था । थोड़ी भागदौड़ से मुझे एक ऑफिस में नौकरी मिल गई । 


     वह भी वही काम करता था । वह मेरे पति का दोस्त था । सच कहूँ तो मैंने उसे कभी नहीं देखा था । पर हो सकता है ना, पूरा शहर ही लड़कों का दोस्त होता है। उसका स्वभाव बहुत ही अच्छा और मिलनसार था। मेरी नई नई नौकरी थी । मुझे बार-बार किसी ना किसी से कुछ ना कुछ पूछना ही पड़ता था। तो मैं उसकी ही मदद लेती थी । साथ काम करते करते पता नहीं कैसे हम दोनों के मन में एक दूसरे के प्रति कुछ भावनाएं जागृत हो गई। 


    पहल उसने ही की थी पर मेरी भी अपनी सीमाएँ थी। मैं चाहकर भी उसके प्यार को स्वीकार नहीं कर पा रहीं थी। धीरे धीरे उसके प्यार और व्यवहार ने मुझे मेरी पलकों पर भविष्य के सुंदर सपने सजाने को मजबूर कर दिया। हमने अपने परिवार वालों को अपने बारे में बताने का निर्णय लिया। उसका मानना था कि उसके परिवार वाले उसकी खुशी के लिए मान जायेंगें। परेशानी तो मेरी तरफ से होगी। मुझे दो दो परिवारों को राजी करना पड़ेगा। खैर मैंने सब सोच विचार कर रखा था। शायद उससे शादी करने के बाद मुझे यह सब फ्लैट वगैरह छोड़ना पड़ेगा तो कोई गम नहीं। पर मैं अपने सास-ससुर व माता-पिता से अनुमति ले पाती उसके पहले ही एक दिन उसकी माँ आ करके मुझे बहुत बुरा बुरा बोल कर गई । मुझे बहुत शर्म आयीं अपने ऊपर । क्यों मैं भूल गई थी कि मैं एक विधवा हूँ ? क्यों मैं भूल गई थी कि मैं उस समाज में रहती हूँ जहाँ पत्नी के मरने के सवा महीने बाद ही पुरुष की, एक विधुर की शादी एक कुंवारी कन्या से कोई सवाल खड़े नहीं करती हैं। पर पति के मरने के बाद एक विधवा को कोई भी बहू रूप में स्वीकार करना पंसद नहीं करता। शायद समाज के इसी रूप से मेरे माता पिता भली भाँति परिचिति थे इसीलिए मेरे भविष्य की सुरक्षा के लिए वह ससुराल की सम्पति में मेरे हक की बात करते थे। 



    इस घटना के बाद दो दिन तक मैं ऑफिस नहीं गई। मै लोगों का, समाज का सामना करने की हिम्मत ही नहीं जुटा पा रही थी । मन के एक कोने में एक आशा कह रही थी कि शायद वह मिलने आएगा । शायद वह इन सब रूढ़ियों, बाधाओं को तोड़कर अपने परिवार को शादी के लिए मना लेगा । वह आया तो पर परिवार की स्वीकृति के बगैर | और सच कहूँ मैं फिर किसी बेटे को उसकी माँ से अलग करने का निमित्त नहीं बनना चाहती थी । वह हंसते हुए बोली, "फिर . . ? क्यों पूछ रहे हो! शिरीष के मरने के बाद भी तो सब ने यही कहा था, उसकी माँ ने भी, करमजली खा गई मेरे बेटे को। मैं चुप था, आज बरसों की पीड़ा बह रही थी । मैंने उसे बहने दिया। क्या हर आभा अपने अंदर इतना दर्द छुपाए रहती है। 



××××××××××××××××××


          वक्त अपनी रफ्तार से गुजर रहा था। मुझे यहाँ आए ढेड़ साल से ऊपर हो गया था। अब मैं अखबार इंटरनेट छोड़ कर अपने आसपास ढूँढने लगा था। कहना गलत ना होगा अगर मैं कहूँ कि मेरी हालत जवान लड़की के बाप जैसी हो रही थी। क्षमा चाहता हूँ वैसे संयुक्त परिवार में रहने के कारण मुझे इस दबाव का कोई अनुभव नहीं हैं। मैं बस आभा को खुश देखना चाहता था उसे उसके हिस्से की खुशियाँ देना चाहता था। वैसे संयुक्त परिवार से मुझे मेरे सबसे बड़े ताऊ जी के बेटे याद आ गये। उनकी शादी भी अभी तक नहीं हुई हैं शायद उन्होंने की नहीं। क्यों . . ? क्या पता . . . वैसे माँ से एक बार पूछा था मैंने तो माँ ने बताया था जिस लड़की के साथ शादी होने जा रही थी उसकी शादी से दो दिन पहले साँप के काटने से मृत्यु हो गयी। तब साँप के काटने पर शव की क्रिया नहीं करते थे उसे नदी में प्रवाहित कर देते थे। इस विश्वास के साथ कि नदी में प्रवाहित करने से साँप का जहर उतर जाता है। भैया भी इसी विश्वास के चलते कि जिसके नाम की हल्दी लगी है उसका साल भर इंतजार करना तो बनता हैं।


          उनके इस विश्वास को लोगों के अंधविश्वास ने यह कहकर हवा दी कि वैसी ही लड़की तीन चार गाँव आगे देखने में मिली है। यह जानते हुए भी कि जाने वाले लौट कर नहीं आते हैं, भैया और उस लड़की के परिवार वालों ने भी नदी के किनारे किनारे बहुत दूर तक लोगों के कहने के कारण लड़की की खोज की । पढ़े-लिखे भैया भी इन लोगों के कारण किस 



अंधविश्वास में फंस गए ? मैं कभी समझ नहीं पाया। पर अब लगता है शायद यह उनका पहला कच्ची उम्र का प्यार था। जिसने उनको शादी के बंधन में बंधने ही नहीं दिया। यह सब सोच विचार कर कि अबकी बार जब मैं गाँव जाऊँगा तो जाकर भैया से शादी की बात चलाऊँगा । मैं यह भी विचार कर रहा था कि मुझे पहले भैया से पूछना चाहिए या आभा से ? कि वह यहां अपनी परवरिश के माहौल से इतनी दूर वहाँ जाना पसंद करेंगी ? यह सब बाद की बात है मुझे लगता है मुझे पहले भैया से बात करनी चाहिए। 



      उस दिन आफिस से आने के बाद मैंने उनको नहीं देखा, होगा कहीं गयी होगीं। दूसरे दिन भी नहीं दिखी तो फोन ट्राई किया फोन भी स्वीच ऑफ । लगभग एक हफ्ते बाद उनका दरवाजा खुला दिखा। मैं अन्दर गया आवाज लगायी आभा. . . । वहाँ दो तीन लोग थे । उनके चेहरे पर पता नहीं मेरे लिये या स्थायी अप्रसन्नता के भाव थे। वह नहीं दिखी तो मैं उन लोगों को सॉरी बोलकर चला आया। दो दिन बाद उनका फोन आया तब उन्होंने बताया कि उनको आफिस में अटैक जैसा आया था। आफिस वालों ने उनके ससुराल वालों को सूचना दी। यहाँ प्राथमिक चिकित्सा के बाद ससुराल वाले अच्छे उपचार के लिए उन्हें बड़े शहर के अस्पताल में ले गये साथ में उनके मायके वालों को भी फोन कर दिया। 

    


        मैनें बोला, "यह तो अच्छा किया । सही समय पर आपको सही चिकित्सा मिल गयी"। 



वह पता नहीं अपने आप से या मुझसे बोली, "नहीं मेरे घरवालों को कितनी परेशानी उठानी पड़ी। यहाँ रहती तो रहने की परेशानी नहीं होती। वहाँ मेरे भाई बहन को होटल लेकर रहना पड़ा। अस्पताल का बिल भी बहुत आया"। .


मैंने पूछा तो क्या बिल मायके वालों काे भरना पड़ा ? 


वह बोली, "नहीं उन लोगों के पास इतने पैसे कहाँ । अस्पताल और होटल दोनों का बिल तो मैंने ही भरा"। 


मैं फिर सोच रहा था कि क्या जरूरत थी सबको आकर रुकने की । वह एक एक कर बारी बारी से अस्पताल में भी रुक सकते थे। क्या आभा की जान की कोई कीमत नहीं हैं उसके मायके वालों के लिए। मेरे हिसाब से तो ससुराल वालों ने बड़े शहर ले जाकर अच्छा किया। 


खैर आभा बोल रहीं थी, कि मेरे घरवालों को तुम्हारा आना पंसद नहीं आया। उनके जाने के बाद मैं फोन करुँगी। अभी वह लोग घूमने गये हैं तो मैं तुम्हें फोन कर पायी। 


मैने कहाँ ठीक है पर कुछ भी जरूरत लगे तो फोन करना। 


कुछ दिनों बाद आभा का फोन आया सब लोग गये। आज रात का खाना साथ ही खाते हैं।


 मैंने कहा, "ठीक हैं पर तुम मत बनाना । मैं देखता हूँ"। अब तक मैं थोड़ा खाना बनाना सीख गया था। आभा की पसंद की भाजी थोड़ी कम तेल मसाले वाली, बाकी टिफीन तो लगा ही था तो दो लोगों का खाना मंगा लिया था, लेकर मैं उनके घर पहुँच गया। उनको देखकर पूछा, "और तबीयत कैसी हैं अभी दवाईयाँ बराबर ले रहीं हो ना, आफिस से थोड़ी छुट्टी ले लो । ठीक से आराम करो । अब से तलाभुना बाजार का खाना बन्द"। 



वह मुझे देखते हुए बोली, "कौन हैं तू ? मेरा तेरा तो कोई नाता भी नहीं है। तू कितना ख्याल रखता है मेरा। मेरे भाई बहन तो जितने दिन थे बस बाहर से मंगा कर ही खाते थे कि कौन बनाए। मैं अपने लिए खिचड़ी डाल लेती थी"।

 

मैंने कहा, "चलो जाने दो उनकी बातें । चलो आज आराम से खाना खाओ। कुछ और चाहिए हो तो मैं बना देता हूँ।


खाना खाने के बाद सब सामान समेटकर (हाँ जब भी मैं वहाँ खाना खाता था उनके साथ उनका काम भी समेट देता था। मुझे मालुम था वह अकेली है और कोई कामवाली भी नहीं लगा रखी हैं। और अभी तो खैर बीमार भी थी) मैं निकलने ही वाला था कि वह बोली थोड़ी देर बैठो ना । फिर वह अंदर से जाकर एक खूब बड़ी सी पोटली ले आई । मुझे लगा पुरानी तस्वीरें होंगी । उन्होंने पोटली खोली तो अंदर बहुत सारे गहने थे । उसमें से एक बड़ा सा हार उठाकर मेरे हाथ में पकड़ाती हुई बोली, "यह सारे गहने मुझे मेरी शादी में ससुराल की तरफ से मिले थे। यह ले ले जब तेरी शादी होगी तो मेरी तरफ से तेरी पत्नी को पहना देना" ।


मैं पहले तो थोड़ा आश्चर्यचकित हो गया फिर मुस्कराते हुए बोला, "आज अचानक से मेरी पत्नी की याद कैसे आ गई ? मैंने हार उनके हाथों में वापस पकड़ते हुए बोला, "जब मेरी पत्नी आएगी तब तुम उसे अपने हाथों से पहना देना"। 


वह बोली, "तू बोल रहा था ना कि तू चला जाएगा" । 


मैंने कहा, "तो क्या हुआ तुम मेरी शादी में आना। नहीं तो शादी हो जाएगी तब मैं पत्नी को लेकर आऊँगा ना अपनी गर्लफ्रेंड से मिलवाने के लिए"। वह हंसते हंसते रो रही थी यह रोते रोते हँस रही थी, समझ में नहीं आ रहा था । 


इतने सारे गहने देखकर मेरा तो दिल धक-धक कर रहा था। मैंने गहनों की पोटली वापस बाँधकर उनके हाथों में देते हुए कहा, "इसे घर में क्यों रखा है ? बैंक में रख दो । घर में रखना बहुत जोखिम का है। वह बोली, "सोच रही हूँ कि सारे गहने ससुराल वालों को वापस कर दूँ"। 


 मैंने माहौल थोड़ा हल्का करते हुए कहा, "क्यों जब शादी करोगी तब क्या गहने नहीं पहनोगी? तुम्हें क्या लगता है, तुम्हारी दूसरी ससुराल वाले भी इतने ही अमीर होंगे"। 


वह हंसते हुए बोली, "तू मेरी शादी करवा कर ही मानेगा लगता है । फिर बोली तुझे मालूम है मैंने यह दोनों फ्लैट भाई और बहन के नाम पर कर दिए हैं । 


मैंने कहा, "अच्छा किया यह तो बहुत खुशी की बात है । अब तो मुझे तुम्हारे लिए कोई अच्छे घर वाला लड़का ढूंढना ही पड़ेगा नहीं तो तुम रहोगी कहाँ" ? 



वह गुस्से में बोली, "मरने के बाद उनके नाम पर होंगे, अभी तो मेरे नाम पर ही है । तुझे मालूम भी है वह क्या कह रहे थे ? कि तू घर पर आता जाता है कहीं किसी दिन गलती से बहला-फुसलाकर यह दोनों फ्लैट अपने नाम पर करवा लेगा"। 



सुनकर मुझे बहुत गुस्सा आया पर उस बेचारी से क्या कहता, ठीक है जिसकी जैसी सोच । फिर मुझे लगा कि आज के ज़माने में एक अनजान के लिए घरवालों की सोच सहीं भी हैं। किसी के माथे पर थोड़ी ना लिखा है कि वह कैसा है। 



 मैंने कहा, "वैसे वो लोग गलत नहीं हैं। ज़माना खराब है और वो तुम्हारा भला चाहते हैं। अब देखों ना कैसे अपने सारे गहने तुम एक अनजान के सामने खोलकर रख दी। और देखों तुम गहने मुझे देने को तैयार भी हो" । 



वह बोलीं, "नहीं डरती हूँ कि कहीं कल को गहने भी किसी ने माँगे तो ? अभी उन लोगों को नहीं मालुम है कि गहनें मेरे पास है । तुझे मालुम है वो जब भी आते हैं सिर्फ अपनी परेशानियों की बातें करते हैं, रोना रोते हैं। फिर कभी बच्चों की फीस कभी माँ की बीमारी के नाम पर पैसे मांगते रहते हैं। मुझे देना खराब नहीं लगता पर उनका वह कहना तुम क्या करोगी ? कहीं अंदर तक चुभ जाता है। मेरी सारी मंहगी मंहगी साडियाँ उठा ले गये कि तुम इतने चटक रंगों की भारी साडियाँ क्या करोगीं ? क्यों क्या मेरा मन नहीं करता। और अब तो सभी पहनते हैं । अब तो समाज भी विधवा के पहनने ओढ़ने पर कोई सवाल नहीं करता तो फिर उन लोगों को क्या परेशानी हैं ?


 तुझे लेकर भी ना जाने कैसी कैसी बाते बोल रहें थे। खुद तो परिवार के साथ खुश हैं जब कुछ चाहिए होता हैं तब आभा याद आती हैं। चार पल मैं हँसी खुशी जी लेती हूँ तुम्हारे साथ तो क्या गलत करती हूँ। इसमें क्या परिवार की नाक कट गयी ? नाक ही कटवानी होती तो क्या अब तक इंतजार करते बैठी होती I बोल रहें थे कि तुम को मेरे ससुराल वालों ने भेजा है कि जिससे होटल पर उनका कब्जा हो जायें। 


मेरा दिमाग बिल्कुल सुन्न पड़ चुका था लोग क्या क्या सोच लेते हैं । 


पर वह धाराप्रवाह बोलती जा रहीं थी इतने गुस्से इतने आवेश में मैंने उन्हें पहली बार देखा था। वह बोली , वह लोग तो मेरे ससुराल वालों को भी कितना सुनाकर आए कि क्या जरूरत थी जरा सी बात में बड़े अस्पताल में ले जाने की। कितना भी कर लो होटल तो तुम्हें आभा के नाम करना ही पड़ेगा नहीं तो कोर्ट में देख लेंगे। इतने सालों से चुपचाप सुनने वाले मेरे ससुराल वालों ने भी बोल दिया कि हम तो मानवता के नाते कि समाज हमें गलत ना कहें कर देते थे अब कुछ हुआ तो हम झाँकने भी नहीं आयेंगे अब कोर्ट में ही मिल लेना। पहली बार मैंने उनके चेहरे को अपने दोनों हाथ में पकड़ कर बोला, "तुम मुझे बहुत असुरक्षित लगती हो अपनों के बीच में। मुझे जल्द से जल्द तुम्हारे लिए कोई ढूंढना पड़ेगा जो तुम्हारे फ्लैट गहनों की नहीं तुम्हारी चिंता करेगा। 


×××××××××××××××××


      माँ ने मेरी नौकरी के लिए छठ मैया की पूजा मानी थी। पिछली बार तो नयी नयी नौकरी थी, मैं दीपावली की छुट्टियों में घर भी नहीं जा पाया था । पर इस बार तो माँ ने एक महीना पहले से ही बोल बोल कर मुझे दीपावली की छुट्टियों में घर पर आने के लिए मजबूर कर दिया था । घर जाना तो मैं भी चाहता था पर आभा को अकेला छोड़कर नहीं। मैं जानता था मैं हमेशा उनके साथ नहीं रह सकता हूँ पर मैं चाहता था कि कोई तो मिले जो उनका हाथ थाम ले। इसके लिए भी घर जाकर मुझे बड़े भैया से बात करनी थी। उन्हें शादी के लिए राजी करना था। एक बार भैया हाँ बोल दे तभी आभा से बात करूँगा। हाँ वरना आभा से बात कर ली और भैया राजी ही ना हुए तो कितना बुरा लगेगा ना उनको। 


       दीपावली से लगभग दस दिन पहले की बात है मैंने देखा वह थोड़ा लंगड़ा कर चल रही थी। 


 मैंने पूछा, "क्या हुआ ? 


उन्होंने कंधे उचकाते हुए बोला, "कुछ नहीं उंगली में थोड़ा सा कट लग गया था । ठीक ही नहीं हो रहा है । मवाद आ गया है"। 


डॉक्टर को दिखाया ? मैंने पूछा । 


"छोटा सा घाव है । क्या डॉक्टर को दिखाना। मैंने पट्टी मार तो ली है" वह बोलीं । 


अगले रविवार को जब मैं उनके घर पर गया तो वह लेटी थी। मैंने देखा फर्श पर जगह-जगह खून के निशान से पड़े हुए हैं । मैंने फर्श साफ करते हुए कहा, "दिखाओ कहाँ चोट लगी है ? तुमको डायबिटीज तो नहीं है ? तभी घाव तुम्हारा इतना बढ़ गया है शायद" ।


 वह बच्चों की तरह बोली, "डायबिटीज कभी चेक नहीं करवाया । डायबिटीज चेक करवा लूंगी तो फिर मेरा मीठा खाना छूट जाएगा"। 


 "अरे पागल तुम जिंदगी से हाथ धो बैठोगीं। मालूम है कितना खतरनाक होता है डायबिटीज वालों को कोई घाव होना । चलो कल डॉक्टर के पास जाकर आएंगे"। 


 दूसरे दिन हम डॉक्टर के पास गए । वही हुआ जिसका डर था उनका डायबिटीज 280 के ऊपर था । एक उंगली में लगे छोटे से घाव से अब तीन उंगलियाँ सड़ने लगी थी। डॉक्टर ने पाँच दिन की दवाई खाने के बाद वापस दिखाने को बोला । डॉक्टर ने मुझे बोला अच्छा होगा कि यह तीन उंगली हम काट दे । चूंकि डायबिटीज बहुत ज्यादा है और घाव भरेगा भी नहीं । इसके लिए पहले हमें डायबिटीज को कंट्रोल में लाना पड़ेगा । 


मैंने उनके घर पहुँच कर सबसे पहले उनकी मिठाईयाँ चॉकलेट और शक्कर सब हटा दिया। मैंने कहा पाँच दिन पूरा परहेज करो जब ठीक हो जाएगा तो यह सब सामान मैं वापस रख जाऊँगा । चिंता मत करना मैं तुम्हारी एक भी चॉकलेट नहीं खाऊंगा । एक हफ्ते में उनका डायबिटीज काफी हद तक कंट्रोल में आ गया था । डॉक्टर घाव को सूखने की दवाइयाँ दे रहे थे । शायद उंगलियाँ काटनी ना पड़े । तीन दिन बाद मुझे घर के लिए निकलना था । 


वैसे वो ठीक थी । पर मुझे उनको इस हाल में छोड़ कर जाना अच्छा नहीं लग रहा था। छठ मैया की पूजा ना होती तो शायद मैं ना जाता। यहीं बात मैंने उनको बोली, कि अब तुम्हें रोज ड्रेसिंग (मरहम पट्टी) के लिए कौन ले जाएगा। एक काम करों अस्पताल में एडमिट हो जाओ वहाँ डाक्टर की देखरेख में रहोंगी। घर पर तो तुम दवाईयाँ भी खुद से नहीं खाती हो । मुझे चिंता भी ना रहेंगी"। 


मेरी बात मानकर, डाक्टर से बात करके कि जब तक उनका घाव पूरी तरह ठीक नहीं होता हैं उन्हें अस्पताल में ही भर्ती रखें। मैं उन्हें एडमिट कराकर घर के लिए निकल गया था। 


तीसरे दिन जब मैंने आभा को फोन किया तो वह बोली, "उनकी बीमारी का सुनकर उनकी बहन आ गयी हैं और उन्हें घर पर ले आयी है। उनका घाव भी अब ठीक है"। 


मैंने कहा, "ठीक है अब मैं फोन नहीं करूँगा तुम्हें जब समय मिलें तुम कर लेना । अपनी हाल खबर देते रहना, अपना ख्याल रखना। वैसे भी सात दिन में मैं आ जाऊँगा"। 


आभा का फोन नहीं आया। मैं भी इतने दिनो बाद आया था इसीलिए परिवार दोस्तों में व्यस्त रहा। वैसे भी उनकी बहन आ गयी थी तो मैं निश्चिंत था। मेरे एक जॉब इंटरव्यू के कारण मुझे आने की तारीख चार दिन आगे करनी पड़ी और आज ही लौटा हूँ। 


पता नहीं क्यों मन अनहोनी की आकांशा से काँप रहा था । सोचा सामान घर पर रखकर पहले अस्पताल जाकर आभा से मिलकर आता हूँ, बाद में आकर शान्ति से कपड़े बदल कर कुछ चाय वगैरह पीऊँगा। जैसे ही मैं सामान रखकर नीचे आया रिचा आँटी दिख गयी, वह भी आभा की दोस्त थी। परिवार और बच्चों के साथ व्यस्त होने के कारण रिचा आँटी की कुछ सीमाएँ थी । फिर भी मुझसे मिलने से पहले तक वह दोनों बहुत पक्की वाली सहेलियाँ थी। आभा अपनी सारी बातें उनके साथ साझा करती थी। मैंने उनको देखकर मुस्कान के साथ अभिवादन किया। उन्होंने ने पूछा, "कब आयें" ?

 

मैंने कहा, "बस अभी चला आ रहा हूँ। लगता है आभा अभी अस्पताल में ही है। देखकर मिलकर आता हूँ"। 


रिचा आँटी ने कहा, "रुको अभी आए हो । चाय पीकर फिर जाना"। 


"नहीं आँटी आकर के चाय पीता हूँ" मैंने कहा। 


"मैं बोल रही हूँ ना, चलो चाय तैयार ही है पहले पी लो फिर .." रिचा आंटी अपने फ्लैट का दरवाजा खोलते हुए बोली। 


"आँटी आप बेकार परेशान हो रही है। 


परेशानी की कोई बात नहीं तुम बैठो।


"अंकल जी और बच्चे कहाँ है "? बैठते हुए मैने पूछा।


"अंकल जी आफिस से अभी नहीं आए है और बच्चे ट्यूशन गये है" चाय का कप पकड़ाते हुए वह बोली। 


चाय पीकर मैं उठकर खड़ा हुआ। थैंक्यू आँटी ! मैं अस्पताल जाकर आता हूँ। 


तुझे वहाँ कोई नहीं मिलेगा। 


मतलब ? आभा कहीं शहर से बाहर गयी है ?


तुम बैठो मैं बताती हूँ। 


मैं बैठते हुए बोला, हाँ बताइए. I 


तुम्हारे जाने के बाद आभा की बहन आ गयी थी। वह उसे अस्पताल से घर लिवा लायी। घर पर रोज मरहम पट्टी ना होने से और खाने में परहेज ना करने के कारण उसका डायबिटीज बहुत बढ़ गया और वापस से ऊगलियाँ पक गयी थी। अब तो उसके घाव से बदबू भी आने लगी थी। मैंने कहा भी डाक्टर के पास चलने के लिए। आभा ने कहा कल वो मायके जा रही हैं अब इलाज़ वहीं जाकर करवायेंगी। इतने सालों बाद मायके जाने के नाम पर वह कितनी खुश थी। 


"अच्छा तो वो अपने मायके में हैं। कितनी खुश होंगी ना । सच में उनकी कितनी इच्छा थी मायके जाने की चलो पूरी हो गयी" मैं बोला। 


कहाँ पूरी हुई ! जाने से एक दिन पहले आभा ने मुझे बुलाया था । देखा तो सब सामान पैक था । अलमारियाँ पूरी खाली। आभा बोली अब जाकर वहाँ सब के साथ रहूँगी । यहाँ अब पता नहीं वापस आना हो ना हो । मुझे एक लिफाफा देते हुए बोला इसमें चेक हैं तुम्हारे बच्चों के लिए शादी का उपहार उनकी मौसी की ओर से। यह पैसे जल्द से जल्द बैंक से निकाल लेना। पता नहीं वहाँ पहुँच कर मुझे कहा और कितना खर्च करना पड़े। 


फिर जा क्यों रहीं हो ? यहाँ नौकरी करती हों। 


वो क्या है ना कि उन लोगों को भाग भाग कर आना पड़ता है मेरे कारण उन लोगों को तकलीफ होती हैं। अच्छा एक काम और कर दे ना। मुझे लेकर मेरे ससुराल चल एक बार ।  


उसको लेकर मैं उसके ससुराल गयी। ससुराल वाले तो पहले से ही नाराज थे। उसने जाकर सास को चरण स्पर्श किया और एक पोटली पकड़ाते हुए कहा यह सारे जेवर मुझे ससुराल से मिले थे। यह आप रखिए मेरे भतीजे भतीजियों की शादी में उनके चाचा चाची की ओर से उपहार हैं। मेरी तरफ से अपने मन में मैल मत रखिएगा मुझे कुछ नहीं चाहिए होटल भी नहीं। अब मैं यहाँ से जा रहीं हूँ।


दूसरे दिन वह लोग निकल गये। चार दिन बाद शाम के समय एक आदमी मेरा पता पूछता हुआ आया। उसने बताया वो पास वाले शहर के सरकारी अस्पताल का वार्ड बाय है। उसके यहाँ आभा नाम की एक मरीज एडमिट हैं उसने मुझे भेजा है आपको बुलाने के लिए। 


मैं एकदम से उठ खड़ा हुआ ऐसा कैसे ?


हाँ हम सब भी ऐसे ही अचंभित रह गये थे। शाम हो गयी थी फिर भी हम तुरंत निकल पड़े गाड़ी करके। आभा सरकारी वार्ड में एक पुरानी सी मैक्सी पहने लेटी थी। मुझे देखकर बोली मायके जाना इस जन्म में शायद मेरे नसीब में नहीं। 


पर तुम यहाँ कैसे ? मैंने आभा से पूछा। 


मुझे भी नहीं मालुम । मैं तो निकली थी बहन के साथ घर जाने के लिए आँख खुली तो खुद को यहाँ पाया। 


डाक्टर नर्स बताते है कि किसी ने यह बोल कर कि रास्ते में इनकी तबीयत अचानक खराब हो गयी, यहाँ एडमिट करवाया। थोड़ी देर साथ थे फिर बाद में कहाँ गायब हो गये पता ही नहीं चला । डाक्टर ने एक दिन इंतजार किया । मैं भी बेहोश थी। शायद मुझे बेहोशी का इंजेक्शन या दवाइयाँ दी गयी थी। 


बाद में होश में आने पर मैं समझ ही नहीं पायी कि मेरे साथ ऐसा क्यों किया सब कुछ तो उन लोगों का ही था मेरे मरने के बाद I मेरे चैन से मरने का इंतजार भी उन लोगों से ना किया गया। 


पर तुमने फोन क्यों नहीं किया। 


फोन भी ले गये। सारे नम्बर तो फोन में ही थे। जरूरत भी नहीं अब किसी को फोन करने की। तुमको भी इसलिए खबर करवायी क्योंकि मैं लावारिस नहीं मरना चाहती थी। 


नर्स बोल रही थी कि पैर में गैग्रीन हो गया है। पंजा काटना पड़ेगा नहीं तो जहर पूरे शरीर में फैल जाएगा। 


वह बोली अब जीने की इच्छा भी नहीं हैं। 


मैं बोली, "आप इसकी मत सुनिए आप आपरेशन की तैयारी कीजिए। अगर आप कहें तो हम इन्हें बड़े अस्पताल या आसपास कोई प्राईवेट अस्पताल मे ले जाए"। 


मेरा जी बैठा जा रहा था। मैंने डरते डरते पूछा अब आभा . . . । 


जब जीने की आस टूट जाये तो फिर बचाना मुश्किल हो जाता है। चेकअप, रिर्पोट आपरेशन की तैयारियों के पूरे होने पहले ही वह. . .


मैं शाक्ड था. . इतनी मतलबी दुनियाँ. . . ऐसे रिश्ते. . . क्या मेरी गलती थी मुझे उन्हें छोड़कर नहीं जाना चाहिए था ? 


रिचा आँटी बोल रही थी, ससुराल वालों को खबर की तो बोले मायके वाले जाने। मायके वालों का तो फोन नम्बर भी नहीं था। फिर भी ससुराल वालों के पास मायके वालों का जो नम्बर था उस पर फोन लगाने पर वो बोले अभी तो हम नहीं पहुँच पायेंगेl 


आरोप प्रत्यारोप के बीच में मायके वालों का कहना था अस्पताल में भर्ती तो करवाया ही था ना। 


शायद आभा को पहले से ही मालुम था इसीलिए चेक मुझे देकर गयी थी। ससुराल वाले तो ऐसे ही सीधे अस्पताल से जलाने के लिए लिये जा रहे थे। हम यहाँ लेकर आये। घर पर तो ताला लगा था यहीं बरामदे में रखा। उसकी लगायी तुलसी जो मुरझा रही थी वहीं उसके मुँह में डाली। मैंने अपनी नयी साड़ी उसके ऊपर डाली। कफन का कपड़ा भी कोई ले आया था । अपनों के रहते हुए भी परायों के द्वारा विदा हुई। 


मैं तो ना अपनों में था ना परायों में। मैं तो विदा भी नहीं कर पाया। 


रिचा आँटी बोली वैसे तो हमने छोटी सी शान्ति पाठ की पूजा रखी थी। तुमसे हो सके तो उसके अस्थि कलश का विर्सजन कर देना। 


मैं दूसरे दिन ही उनके अस्थि कलश के साथ उनके मायके गया । पता तो नहीं मालुम था बातों बातों में कभी मुहल्ले का नाम बताया था, लेकर घुमता रहा , उनको घुमाता रहा। फिर नासिक जाकर विधिवत विर्सजन किया। 


वापस आने के बाद अब उस सोसायटी में मेरा मन नहीं लग रहा था। ना वह बेला की खुशबु आती ना उनकी आवाज सुनायी देती। मैं घर बदल कर सोसायटी छोड़कर जा रहा था कि रिचा आँटी की आवाज आयी जरा यहाँ तो आना। आभा तेरे लिए एक और काम छोड़कर गयी है। उन्होंने मेरे हाथों में सोने का हार रखते हुए बोला इसे तेरी पत्नी को पहनाना हैं।


हाँ मेरी बात हुई थी उनसे, यह हार वह मेरी पत्नी को पहनाने वाली थी । अब वह नहीं है तो यह हार मैं नहीं ले सकता। इसे आप ही रखो उनकी निशानी के रूप में। मेरे पास रहेगा तो मुझे बहुत सारे लोगों के बहुत सारे सवालों के जवाब देने पड़ेंगे। वह होती तो इन सारे सवालों के जवाब आसान थे।


वैसे रिचा आँटी वह लोग सब ले गये तो यह एक्टिवा क्यों छोड़ गये ? 


ईएम़आई पर थी ना । पैसे भरने पड़ते । 


मै सोच रहा था कि रिश्तों की तो सारी ईएमआई आभा ने भरी थी फिर उन्हें क्यों छोड़ दिया ? 



समाप्त. . . (शायद नही )




मैं भगवान तो हूँ नहीं कि कर्मों का लेखा जोखा करके व्यक्ति को वैसी जिंदगी दूँ। मैं तो लेखिका हूँ । मेरी कलम तो स्वतंत्र है किसी भी कहानी को सुखांत या दुखांत करने के लिए। वैसे भी लिखते वक्त मेरी नहीं कलम की ही चलती है। क्या सोचकर कहानी शुरू की थी और कलम इसे कहाँ तक ले आयी । पर मैं इस अन्त से खुश नहीं हूँ। 


      भगवान की बनाई दुनिया में भले ही आभा अपने पूर्व जन्म के कर्मों का फल (ऐसा लोगों का मानना हो सकता है) भोग रही हो पर चलो हमारी दुनिया में, हम कहानीकारों की दुनिया में उसका जीवन खुशियों से भर देते है । कहानी का अंत थोड़ा बदल देते हैं। 

______________________


मैं (रिचा आँटी) बोली, "आप इसकी मत सुनिए आप आपरेशन की तैयारी कीजिए। अगर आप कहें तो हम इन्हें बड़े अस्पताल या आसपास कोई प्राईवेट अस्पताल मे ले जाए"। 


मेरा जी बैठा जा रहा था। मैंने डरते डरते पूछा अब आभा . . . ।


जब जीने की आस टूट जाये तो फिर बचाना मुश्किल हो जाता है। फिर भी हम तुंरत आभा को लेकर बड़े अस्पताल गये। चेकअप, रिर्पोट आपरेशन की तैयारियों के साथ उसका इलाज़ शुरू हो गया। बड़े अस्पताल के डॉक्टर ने कुछ इंजेक्शन लगाकर डायबिटीज को कंट्रोल में लेकर आभा के पैर की सिर्फ तीन उंगलियाँ ही काटी हैं। मैं कल तक वहीं थी आज ही आई हूँ।


 तो आभा अकेली है वहाँ पर ?


नहीं अकेली नहीं है, अपनी ही सोसाइटी की बी विंग की श्वेता आँटी की बेटी जो उसी शहर में रहती है, उसके साथ है । तुम अभी जा कर थोड़ा आराम कर लो । कल सुबह तुम चले जाना । रिचा आँटी से अस्पताल का पता लेकर मैं अपने कमरे में आ गया । मुझे लग रहा था मैंने आभा को लगभग खो ही दिया था। 


     अगली सुबह पहली ट्रेन से ही मैं अस्पताल के लिए निकल गया। मैं जल्द से जल्द आभा से मिलना चाहता था। उनको देखना चाहता था, उनसे पूछना चाहता था कि क्या वह मेरे भैया से शादी करना पसंद करेंगी (हाँ, भैया ने हाँ कह दिया था)। अस्पताल पहुँच कर मैं श्वेता आँटी की बेटी से मिला । वह मुझे आभा के वार्ड में छोड़ कर घर जाने के लिए निकल गयी। अभी सारा दिन मुझे आभा के साथ रूकना था शाम को रिचा आँटी आने वाली थी । आभा को देखकर मेरी आँखों से आँसू बहने लगे । वह मुझे देखकर मुस्कुराते हुए बोली, "रो क्यों रहे हो ? मैं ठीक हूँ"।


 "अगर मैं तुमसे नहीं मिल पाता तो, तुम्हें कुछ हो जाता तो" ? मैंने उन्हें गले से लगाते हुए बोला। 


वह मुस्कुराती हुई बोली, "मुझे तो लगा तू वापस आएगा ही नहीं" ।


"हाँ इसीलिए मुझे बताएं बिना सब छोड़ छाड़ कर जा रहीं थी",मैंने उलाहना देते हुए कहा।


 मैं उनको देखते हुए सोच रहा था कि जब उन्हें मेरी सबसे ज्यादा जरुरत थी, मैं उनके साथ नहीं था I उनके पैर पर पट्टी बंधी थी । मैं सोच रहा था उनके दिल से जख्म तो और भी गहरे होंगे उनकी मरहम पट्टी कैसे होगी ? 


उनके दिल का मवाद बह जायें इसके लिए मैंने उनसे बात करनी शुरू की। बताओं मुझे मेरे जाने के बाद क्या हुआ था। क्यों तुमने इतना बड़ा निर्णय ले लिया। 


वह भी अपना दुख मुझ से बाँटना चाहती थी, बोली, बरसों से तरस रहीं थी मायके जाने के लिए। यहाँ सभी अपने थे पर दिल को अपनों की, परिवार की कमी बहुत खलती थी। जब किसी को परिवार बच्चों के साथ देखती तो अपना अधूरापन शिद्दत से महसूस होता। पति और बच्चे तो नहीं संभव था, सोचा था माँ के साथ समय बिताऊँगी बरसों बाद उनके आँचल में सो जाया करूँगी"। "क्या माँ को मालुम भी होगा कि मैं कैसी हूँ ? भाई कैसा होगा ? किसी ने भी यह जानने की कोशिश भी ना की कि आभा जिन्दा हैं या मर गयी"।  


मैनें कहा, "अभी भी तुम उन लोगों के बारे में सोच रही हो। अपने बारे में सोचों, अपने लिए जीना शुरू करों। खुशियाँ किसी की मोहताज नहीं होती। अकेलापन अपने अंदर मत फैलने दो। तुम अपनी खुद की साथी बनों। अपने साथ अपने लिए जिओं"। 



उन्होंने रोते हुए कहा, "क्या सोचू अपने बारे में ? कि अब मैं कहाँ रहुँगी ? हॉस्पिटल का इतना सारा खर्चा कहाँ से उठाऊँगी ? मेरा सारा atm, चेकबुक सब तो वह लोग उठा ले गए"। 


मैंने प्यार से उनके बालों में हाथ फेरते हुए कहा, "क्यों. . . हम सब हैं ना । यह सब तो हम लोग संभाल लेंगे"।  


फिर उनको समझाते हुए कहा, "वैसे अगर आपने चेक साइन करके नहीं दिये हैं और उनके साथ आपका जॉइंट अकाउंट नहीं है तो कोई भी आपके बैंक खाते से पैसे नहीं निकाल सकता। घर तो वैसे भी आपके जीते जी आपका ही रहेगा। 


"पर एटीएम कार्ड भी उनके पास हैं, और पासवर्ड उन्हें मालुम है", वह मासूमियत से बोली।  


 मैंने कहा, "चिंता मत करो हम सब है ना । मैं बैंक में हूँ, इसलिए जानकारी है। मैंने सबसे पहले फोन करके उनका atm ब्लॉक करवा दिया । अब कोई भी उनके हस्ताक्षर के बिना उनके खाते से पैसे नहीं निकाल सकता था" ।


      कुछ दिनों में आभा अच्छी होकर घर पर आ गयीं। उन्होंने अपनी नौकरी पर जाना फिर से शुरू कर दिया। अब वह ससुराल या मायके वालों के हाथ की कठपुतली या मोहरा नहीं थी। अब मैं उन्हें खुद के लिए जीना सिखा रहा था कि निकट भविष्य में उन्हें किसी के साथ की जरूरत ना रहें, मेरी भी नहीं। अब आभा मेरे भैया से शादी करती हैं या नहीं इसका निर्णय तो वह भैया से मिलने के बाद ही लेंगी। 


       मैं किसी को गलत नहीं कह रहा हूँ। आभा जी के माता पिता सही हो सकते हैं क्योंकि वह चाहते थे कि बेटी का भविष्य सुरक्षित रहे । पर मेरा कहना है कि संपत्ति के लिए खुशियों को कुर्बान ना करें । संपत्ति संसाधन एकत्र कर सकती हैं साथी नहीं। मैं नहीं कहता हूँ कि शादी करना आवश्यक है । अगर आपके आसपास कोई आभा दिखाई दें जो घिसट घिसटकर जीवन जी रही हो, एक निरुद्देश्य जीवन जी रही हो । हम उसकी जिंदगी में कुछ सकारात्मक परिवर्तन तो ला ही सकते हैं। 


         यहाँ पर आभा को एक प्यारे से परिवार की इच्छा थी। किसी आभा को हम समाजिक कार्यों के लिए प्रेरित कर सकते हैं। किसी आभा को हम उसके किसी रुचि को शौक को विकसित करने की सलाह दे सकते हैं। यह मनुष्य जन्म बहुत पुण्य से मिलता है इसे यूँ ही नहीं गँवाना है । पल पल मर - मर कर नहीं जीना हैं। हर पल जीना है खुशियों के साथ I 

(कुछ महीनों बाद)

     अभी तो मैं दरिया पर सीढ़ियों पर बैठकर आभा और भैया को समुद्र के किनारे रेत पर चलता हुआ देख रहा हूँ। दोनों आपस में बातें करके क्या निर्णय लेते हैं यह तो भविष्य बताएगा । पर दोनों साथ में अच्छे बहुत लग रहे हैं । डूबते हुए सूरज की लालिमा उन दोनों के जीवन को खुशियों से भर दे यही मेरी भगवान से प्रार्थना है। 


Rate this content
Log in