Arunima Thakur

Others

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Arunima Thakur

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वीरप्पन के जंगल में

वीरप्पन के जंगल में

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बीसवीं सदी के आखिरी वर्ष सन 2000 की बात है । पूरी दुनिया बहुत उत्साहित थी आखिरकार हम इक्सवीं सदी में प्रवेश जो करने वाले थे । हम भी उत्साहित थे पर हमारा कारण था कि हमें इस साल कॉलेज की तरफ से बेंगलुरु, मैसूर, ऊटी, कोडैकनाल की कॉलेज ट्रिप पर जाने का मौका मिला रहा था । यह मौका हमें इतनी आसानी से नहीं मिला था । वास्तव में तो हमारे प्रिंसिपल सर इस साल हमें पिकनिक पर भेजने को ही तैयार नहीं थे । पिछले साल के बच्चों ने पिकनिक पर कुछ ज्यादा मस्ती कर दी थी तो सभी टीचर्स ने हाथ खड़े कर दिए थे। ऊपर से हर साल हमारे कॉलेज से दो या तीन दिन की ही ट्रिप जाती थी। हम आसपास की सारे जगह माथेरान, महाबलेश्वर, लोनावाला, खंडाला, रायगढ़ पिछले तीन सालों में घूम चुके थे । इस साल हमारा गोवा जाने का बहुत मन था । पर गोवा का नाम सुनते ही टीचर्स व प्रिंसिपल दोनों ने एक सिरे से खारिज कर दिया I सबसे बड़ी बात तो नए साल का समय होने के कारण वहां पर भीड़ बहुत होगी। पर हम भी कहा हार मानने वालों में से थे । हमने बहुत अनुनय विनय करके उनको बेंगलुरु ट्रिप के लिए राजी किया । बेंगलुरु ट्रिप में कम से कम दस से पन्द्रह दिन का समय लगना था और इतने दिनों के पैसे भी काफी ज्यादा लगते । तो प्रिंसिपल सर का मानना था कि इतने दिन और इतने पैसे कोई बच्चा वहन नहीं कर पाएगा । पर हम कॉलेज के तृतीय वर्ष के विद्यार्थी थे । हम सब बहुत अच्छा कर रहे थे । कॉलेज काउंसिल के चयनित सदस्य, जनरल सेक्रेटरी , इंटर कॉलेज खेलों के विजेता, पढ़ने में भी अच्छे I तो हमने सर से प्रार्थना करके कहां कि हम कोई ऐसा यात्रा प्रबंधक ढूंढते हैं जो समय व पैसे में कटौती कर सकें I सौभाग्य से हमारे एक दोस्त के चाचाजी प्रीत भाई यात्रा प्रबंधक थे । उन्होंने हमें सुझाव देते हुए कहा कि अगर हम रात को सफर करें तो हमारे यात्रा के दिन और होटल में लगने वाले पैसे दोनों की बचत हो सकती है I जवान खून था घूमने का जोश, रात को सफर करने की बात हम सबके मन को भा गई । उनसे बात करने के बाद प्रिंसिपल सर ने हमारी यात्रा को मंजूरी दे दी I

हमें अच्छे से याद है 22 दिसंबर 2000 की शाम मुंबई से तिरुपति के लिए हमारी ट्रेन थी। हम लगभग 105 बच्चे और 5 टीचर थे । अब चूंकि कहानी मुझे "जंगल की रोमांचक सफर" पर लिखनी है। तो मैं आपको मुंबई से तिरुपति, फिर वहां तिरुपति भगवान के दर्शन और वहां से बस द्वारा मैसूर, मैसूर घूमना इन सब बातों का वर्णन नहीं करूंगी । जंगल के रोमांचक सफर की हमारी यात्रा शुरू होती है मैसूर से कोडाईकनाल की बस यात्रा में। मैसूर में एक रात रुकने के बाद दूसरे दिन हम सुबह सुबह कोडाईकनाल के लिए निकल पड़े। हमसे कहा गया था कि अगर हम जल्दी निकलेंगे तो दोपहर तक पहुंच कर थोड़े दर्शनीय स्थल हम देख सकेंगे । और हां हमारे यात्रा प्रबंधक प्रीत भाई की एक खास बात थी कि वह अपने साथ खाना बनाने का पूरा सामान, बर्तन और रसोईया लेकर चलते थे। जिससे हमें खाने वगैरह में कोई परेशानी नहीं होती थी । शहर खत्म होने के बाद गांव के बीच से गुजरती सड़क धीरे धीरे घने जंगलों और पहाड़ों से गुजरने लगी थी I सुबह का समय, ठंडी हवा और जाड़े का सूरज, घने जंगलों में एक अलग ही वातावरण बना रहे थे । तभी अचानक से ड्राइवर ने बस रोक दी । क्यों रोकी ? यह देखने के लिए हम सब बाहर झांकने लगे । तो वहाँ थोड़ी दूरी पर एक हाथी था । वह पहाड़ पर चढ़ने की कोशिश कर रहा था। हमसे आगे एक दो वाहन और भी खड़े हुए थे । हम समझ ही नहीं पाए, हाथी तो सड़क से हटकर है तो हम लोग निकल क्यों नहीं जा रहे हैं ? तब ड्राइवर ने बताया कि वह जंगली हाथी है । वह किस तरफ चल देगा हमें नहीं मालूम I तो जब तक वह ऊपर जंगल में नहीं चला जाता तब तक हम आगे नहीं जा सकते । वह हाथी बहुत आराम में था। हमें लग रहा था शायद उसे ऊपर जंगल में जाना ही नहीं है । और जरा सोच कर भी हम डर रहे थे इतना मोटा हाथी ऊपर पहाड़ (जंगल ) में चढ़ेगा कैसे? पर लगभग आधा घंटा बाद रुकने के बाद हाथी धीरे-धीरे चढ़कर ऊपर पहाड़ पर जंगल में गायब हो गया I उसके बाद दोनों तरफ की गाड़ियों का आवागमन शुरू हुआ I तब ड्राइवर ने बताया कि आवाज से हाथी बेकाबू होकर किसी भी तरफ भाग सकता था । इसलिए जब सड़क पर हाथी होता है, हम अपनी गाड़ियां बंद करके आवाज नहीं करते हैं । उस दिन हमें समझ में आया हम शहर वालों ने भले ही हाथी को गुलाम बना लिया हो । जंगल में आज भी हाथी राजा है । चलते-चलते कुछ बारह बजे के आसपास हमारी बस एक मंदिर जैसे प्रांगण में जाकर रुक गयी। वहाँ मंदिर के आसपास छोटे छोटे कमरे थे, बरामदे थे । एक छोटी सी धर्मशाला का आभास हो रहा था । जो कि वह धर्मशाला नहीं मंदिर ही था। हमें कहा गया कि यहां आधे घंटे का विश्राम लेकर दोपहर का खाना खाकर फिर निकलेंगे क्योंकि यहां से ही वीरप्पन का इलाका शुरू हो जाता है । इसके बाद बस रास्ते में कहीं पर भी नहीं रुकेगी । हम लोगों से मंदिर के आसपास ही रहने को बोला गया । हम सब दिख रहे ऊंचे पहाड़ों की श्रृंखलाओं, खाँई, जंगल नीचे घाटी में दिखते छोटे छोटे घरों को देखकर मंत्रमुग्ध थे । थोड़ी दूर खाई में हमें तीन चार हाथी दिखाई दिए। हाथी देखना कोई बहुत बड़ी बात नहीं थी पर उन हाथी के दांत शायद हमारे हाथों से भी लंबे थे। हम सब की भीड़ लग गई, वहां पर उन बड़े-बड़े दांत वाले हाथियों को देखने के लिए | हमारा शोर सुनकर प्रीत भाई वहां पर आए और हम सबको वहां से हटाकर मंदिर के प्रांगण में ले गए कि चलो खाना तैयार है I इतनी जल्दी ? वह हमें प्रांगण में इकट्ठा करके अंताक्षरी आदि खेल खिलाने लग गए । थोड़ी देर बाद खाना बन जाने पर हम सब खा पीकर वहां से निकले । तो बाद में बस में बैठने पर उन्होंने बताया कि यह बड़ी दातों वाले हाथी वीरप्पन के हैं । ऐसा माना जाता है कि अगर यह हाथी दिख रहे हैं तो वीरप्पन कहीं आस-पास ही होगा । इसलिए सुरक्षा की दृष्टि से तुम सब को मंदिर में बुला लिया । हम में किसी एक ने पूछा तो क्या वीरप्पन मंदिर में नहीं आता है ? तो प्रीत भाई ने कुछ जवाब नहीं दिया ।

खैर अब हमारी बस बड़े बड़े पेड़ों के घने जंगल से गुजर रही थी । इतने बड़े पेड़ कि हमें पूरा सिर उठा कर भी उनकी फुनगी, ऊपर का हिस्सा नहीं दिख रहा था। एक तरफ गहरी खाई में लहराते हुए पेड़ , एक तरफ ऊंचे पहाड़ पर घना जंगल डर के साथ-साथ रोमांच भी हो रहा था। हमारा बड़ा मन था कि हम वहां पर पाँच मिनट रुक कर उन पेड़ों के साथ फोटो खिंचवाएँ । हमने कहा भी जब वीरप्पन के हाथी उस तरफ है तो वीरप्पन वहां पर होगा तो यहां पर बस रोकने में डर कैसा ? पर कहते हैं ना जो चीज सच्चे मन से चाहो तो भगवान भी आपकी इच्छा पूरी करते हैं l हमारी दूसरी बस का शायद टायर पंचर हो गया था या कुछ परेशानी हो गई थी I पता नहीं क्या ? पर दूसरी बस रुकी तो हमारी बस भी रुकी | दूसरी बस में क्या हुआ या देखने के बहाने हम सब कूद फांद कर बाहर आ गएI जब तक उस बस का टायर शायद बदला गया या जो भी कुछ उसमें बनाया गया I हम सब पहाड़ के जंगलों में घुस चुके थे फोटो खिंचवाने के लिए I उन जंगलों की सूखी पत्तियों में हमारे पैर धंस रहे थे। पता नहीं कितने वर्षों से वह सूखी पत्तियां वहां इकट्ठे हो रही थी I आज सोचते हैं तो रूह कांप जाती है अगर उसमें साप वगैरह् कोई जहरीला कीड़ा होता तो ? बस बनने पर हम वहां से निकल पड़े ।

कोडाईकनाल पहुंचकर हम सीधे बोटिंग के लिए झील के पास पहुंचे, नहीं तो हमारा बोटिंग रह जाता I हमें कहा गया वहां कोई एक नाव थी जिसमें सलमान खान और भाग्यश्री ने "दिल दीवाना" गाना गाया था। हमने बोटिंग में बहुत मजा किया । एक कोई प्रसिद्ध चॉकलेट की दुकान पर भी गए । थोड़ा बहुत इधर उधर घूम कर फिर होटल पर पहुंचे I सुबह जल्दी उठकर हम सब को लेकर वह कोडाईकनाल की दर्शनीय जगह घूमाने के लिए ले गये। सच बताऊँ आज उनमें से एक भी जगह का नाम याद नहीं है पर वह सारे दृश्य आंख के आगे साफ दिखाई देते हैं । वह गहरी घाटी से निकलते धुएँ जैसे बादल, वह जंगल जिसके पेड़ों की छाल से रुपए के कागज बनते हैं और पता नहीं कहां-कहां, बहुत जगह घूमें। शाम को हमें वहां से वापस निकलना था । पर यह वर्ष की, शताब्दी की आखिरी रात थी और हम इसे खूब धूमधाम से मनाना चाहते थे । पर अफसोस कि हमने ही रात के सफर की बात मानी थी तो उस दिन हमारा वहां रात्रि विश्राम नहीं था तो भी उन्होंने होटल वालों से बात कर जब तक खाना बनता और हम खाते तब तक हमारे लिए कैंप फायर का इंतजाम कर दिया । हम सब ने खूब नाचा गाया । रात को खाना खाकर वापस से हम उन्हीं वीरप्पन के जंगल से गुजर कर उटी तक जाने के लिए निकल पड़े I इतना सूना सूना नववर्ष नव शताब्दी का स्वागत ? ? इस कारण से हमारे चेहरे थोड़े उतरे हुए थे। रात के पौने बारह बजे के आसपास वही जंगल में दोनों बसें रोक दी गई । टीचर्स और प्रीत भाई ने हमें नीचे उतरने को कहा । बस के स्टोरियों में गाने लगा दिए गए थे । हम सब ने जो धुआंधार नाच किया है कि पूछो मत। हम इतने खुश हो गए थे रात बारह बजे हमने एक दूसरे को नव शताब्दी की शुभकामनाएं दी । प्रीत भाई ने हमारे लिए केक और मिठाई का इंतजाम किया था । हम सब ने खाया। इस तरह से वीरप्पन के जंगल में रात बारह बजे नव शताब्दी वर्ष 2001 स्वागत शायद हम लोगों की सबसे अच्छी स्मृतियों में से एक है ।

         अभी हमें वहां से चलते हुए कुछ आधा घंटा ही हुआ था कि बस ड्राइवर ने गाड़ी धीरे से रोककर हेड लाइट भी बंद कर दी। पूरे चांद की रोशनी और पीछे वाली बस की हेडलाइट में हमने सड़क के बीचो बीच एक बड़े से चीते को देखा । कसम से सड़क की चौड़ाई बराबर बड़ा था । पता नहीं सड़क कम चौड़ी थी या चीता ज्यादा बढ़ा था। हमारे देखते ही देखते वह आराम से राजा की तरह उठा । हमें देखकर दहाड़ा, हमारी तो सिट्टी पिट्टी गुम हो गई और उठकर जंगल में चला गया I उसकी तो पूँछ ही शायद तीन फुट की रही होगी । हम सोच रहे थे कि अगर हम यहां नव वर्ष मनाने के लिए उतरे होते तो ? या इसका मन थोड़ा पहले आराम करने का हुआ होता तो ? हम उसके बारे में ही बात कर रहे थे । अब सबकी नींद भी उड़ गई थी । नव वर्ष का जोश था या पता नहीं क्या हम एक दूसरे के बस के बच्चों को चिढ़ाने लगे कि मैं आगे I कभी जो वह हमसे आगे निकल जाते तो वह चिल्लाते । यह हमारी बच्चों की चिढ़ाने की लड़ाई पता नहीं कब बस ड्राइवर के सम्मान का प्रश्न बन गए । अब वे दोनों बसों की दौड़ लगा रहे थे । सुनसान रास्ता चौड़ी सड़क और आस पास एक भी वाहन नहीं शायद इसलिए या हमारे टीचर्स शायद थक कर सो रहे थे इसलिए उन्होंने मना भी नहीं किया। हमें तो बड़ा मजा आ रहा था । कभी-कभी तो हमारी दोनों बस एक साथ चल रही होती। अचानक से हमारी बस जो आगे थी ने बाएं हाथ को कटते हुए जोर से पूरा ब्रेक मारा और दूसरी बस हमारे बगल से ओवरटेक करके निकल गई। अचानक से ब्रेक मारने के कारण ऊपर रैक में रखा सब सामान हमारे ऊपर गिरा और हमें चोट भी आई । हम नीचे उतर कर देखना चाहते थे कि क्या हुआ है । पर ड्राइवर ने हमको दरवाजा खोलने को ना बोला । हमने सामने देखा आगे एक सकरी सुरंग जैसा पुल था दोनों बसे वहां से एक साथ नहीं निकल सकती थी अगर हमारे ड्राइवर ने ब्रेक ना लगाई होती तो शायद दूसरी बस जो फुल स्पीड में थी चकनाचूर हो गई होती । खैर भगवान का शुक्र मनाते हुए जब ड्राइवर ने बस स्टार्ट करने की कोशिश की तो शायद अचानक से ब्रेक मारने के कारण उसका कोई हिस्सा टूट गया था या पता नहीं क्या हुआ था बस हमारी बस स्टार्ट नहीं हो रही थी । इस वक्त सुबह के लगभग तीन बज रहे थे । यह तय हुआ एक बस को जाने देते हैं । वह बस जाकर कुछ मदद लेकर आएगी या फिर सारे बच्चों को होटल में छोड़ कर वापस आएगी और हमें लेकर जाएगी । पर इतनी सुबह होटल वाले प्रवेश भी नहीं देंगे । नसीब से प्रीत भाई के पास मोबाइल था । उन्होंने फोन करके दूसरी बस मंगाई । जब तक बस आती तब तक हम सब थक कर बस में ही सो गए थे । जब बस आने के बाद हम सुबह सोकर जगे तो अपने बाएं तरफ देख कर हमारी तो चीख ही निकल गई । हमारी बस खाई से सिर्फ एक फुट की दूरी पर थी । अगर रात को ड्राईवर ने थोड़ा और बाँए तरफ काट दिया होता तो ? अगर रात को हम में से कोई भी दरवाजा खोलकर नीचे उतरा होता तो ? हम शायद सीधे ऊपर पहुंच जाते। हम सबको बिना परेशान हुए एक-एक करके ड्राइवर की खिड़की से नीचे उतारा गया I हम सब दूसरी बस में बैठे और चल दिए । आगे जाकर जब हम पहाड़ के एकदम ऊंचाई पर थे हमने बादलों को अपने पास से गुजरते देखा। बादलों को देखने का यह हमारा पहला अनुभव था। थोड़ा आगे जाने पर प्रीत भाई ने बसे रुकवा दी I वह दृश्य आज भी आंखों में बसा हुआ है । मानो लग रहा था कि हम परीलोक में आ गए हैं I पहाड़ की चोटी पर हम खड़े थे और दूर तक सिर्फ सफेद बादल बिखरे हुए थे। हम बादलों के ऊपर खड़े थे मानो लग रहा था । कसम से लग रहा था बस इन बादलों के ऊपर दौड़ लगा दूँ। घने बादलों के कारण नीचे की घाटी और जंगल हमें कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था । सूरज हल्का-हल्का उग रहा था । उसकी नारंगी किरणों के कारण बादल कुछ-कुछ नारंगी दिख रहे थे । इतना अच्छा दृश्य था कि मैं तो वर्णन भी नहीं कर पा रही हूँ। सच में हमारी यह यात्रा रोमांचकारी तो थी ही विस्मयकारी भी थी । उसके बाद मैं कई बार ऊँटी और अन्य पहाड़ी जगहों पर गई हूँ पर बादलों से ढकी हुई घाटी आज तक नहीं देखी । बाद में ऊटी पहुँच कर पहुंचकर बहुत सारे दर्शनीय जगहों पर घूमें । पर मैसूर से कोडाईकनाल और कोडाईकनाल से ऊँटी तक का यह जंगल का सफर, वीरप्पन के जंगल में नव शताब्दी वर्ष का स्वागत और बादलों के राज्य की सैर अविस्मरणीय है।


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