ऊन के गोले
ऊन के गोले
दिसंबर का महीना शुरू हो गया था। मैंने गरम कपड़े निकालने के लिए संदूक खोला। संदूक में कुछ डब्बे पड़े थे। एक डब्बे के अंदर कुछ ऊन के गोले पड़े थे।जिसे देख मेरे चेहरे पर मुस्कुराहट आ गई। मैंने जल्दी से कांटा निकाला और ऊन लेकर अपने बेटे का स्वेटर बुनना शुरू कर दिया। मेरा बेटा अभी सिर्फ नौ महीने का था। तभी मेरी नन्द ने कहा "कौन पहनता है अब बुना हुआ स्वेटर। अब तो एक से एक रेडी मेड मिलता है। कौन इतनी मेहनत करेगा। उस से अच्छा खरीद ना लें।" मैं धीरे से मुस्कुरा दी और कुछ नहीं बोली।
मुझे अपने माँ की याद आई। हम चार भाई बहन थे, मैं अकेली बहन और मुझ से छोटे मेरे तीन भाई थे। हमारी फैमिली मिडिल क्लास थी। तब ठंड आने से पहले हमारी माँ हम भाई बहनों के लिए रात में लालटेन की रौशनी मैं स्वेटर बनाती। पहले लाइट भी नहीं थी, दिन में माँ घर के कामों में बिजी रहती और रात में स्वेटर बनाती। और हम लोगों को बड़े प्यार से पहनाती। मैंने अपनी माँ को अपने लिए कभी स्वेटर बुनते हुए नहीं देखा। हमेशा उन्हें पुराने स्वेटर में ही देखा। पर वो हमें हर ठंड में स्वेटर पहनाती जिसे वो लालटेन की रौशनी में बुनती। वो हमारे लिए सिर्फ स्वेटर नहीं मेरी माँ का हम लोगों के प्रति प्यार था। रेडी मेड अपनी जगह, माँ के हाथ के बुने हुए स्वेटर अपनी जगह । आज फिर ऊन के गोले ने मुझे मेरी माँ की ममता याद दिला दी