Archana kochar Sugandha

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Archana kochar Sugandha

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तकलीफ क्यों--?

तकलीफ क्यों--?

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तकलीफ क्यों--? 


मैं औरत हूँ, एक दम से लाचार लुटी हुई, हालात के हाथों मजबूर, समाज से तिरस्कृत। कभी किसी के प्यार के साथ किया था खिलवाड़, वहीं खिलवाड़ मुँह उठाए खड़ा बना रहा हैं मेरा मजाक। जिस मोहब्बत का इत्र सूंघ कर मैं हो गई थी मदहोश, होश ही नहीं रहा कि उस मोहब्बत के आगोश में कभी कोई ओर था, नाम था उसका पत्नीॆ। पर मुझ पर मोहब्बत का नशा इतना सिर चढ़ कर बोल रहा था कि उसकी जिंदगी में, उसकी पत्नी का अस्तित्व गौण एवं नगण्य लगा। मैं पूर्णत: समर्पित परवाने की बाहों में झूलती, उसके सीने में समाती, उसके गर्म-गर्म सांसो के अहसास एवं मखमली सेज पर बिछे फूलों की खुशबू में इतनी लीन थी कि फूलों के साथ कांटों तथा किसी की रोती सिसकती चित्कारों का अहसास ही नहीं रहा कि मुझे मेरी अमानत लौटा दो---, लौटा दो मेरी अमानत---। पर मुझ पर मर- मिटने वाला वो प्रेम का सौदागर तो छलिया निकला ।मुख मोड़ गया, जिंदगी में कभी न आने के लिए जा चुका था, किसी ओर कमसिन नाज़नीन की बाहों में। सेज से उठता उसकी गर्म सांसों का धुआँ अहसास करा रहा था कि वो तो धुएँ का गुबार था और उड़न छू हो गया। जब तुम्हारी खातिर अपना बेशकीमती खजाना परिवार और अपनी अर्धांगिनी को छोड़ सकता है, तो मधुरस का रसिया, नित नए जाम के अधरों का प्यासा किसी कमसिन और नाज़नीन की खातिर तुम्हें क्यों नहीं छोड़ सकता अब तकलीफ क्यों----?



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